Monday, October 8, 2018


                                   दलित अस्मिता : महात्मा से  बाबा , बाबू  और साहब तक  

                                                                                                     डॉ प्रवेश कुमार
                                                                        
          
                                                                             
दलित समाज की अस्मिता और उस आधार पर हो रहा उभार इनहि सभी प्र्श्नो के हल की और हम आगे बढ़ रहे हैं दलित आंदोलन और उसकी अस्मिता निर्माण की कहानी आज की हैं ऐसे नहीं है बल्कि वो सादियो पुरानी हैं जिसकी शुरूवात वेदो के गलत प्रचालन और उसके कारण समाज मे अत्यचारो का होना से प्रारम्भ होकर आज तक ये निरंतर चलती आ रहा हैं । 

दलित आंदोलन को मुख्यता तीन भागो मे बाँट कर देखा जा सकता हैं :-

(1). संतो-महंतो का सामाजिक सुधार पर आधारित आंदोलन |

(2). दलित समाज का सामाजिक भेदभाव और अस्मिता का आंदोलन |

(3). दलितो वंचितों का सामाजिक राजनीतिक संस्थाओ मे प्रीतिनिधित्व का आंदोलन |

इन सभी कार्मिक आंदोलनो मे जिन-जिन महान विभूतियों ने अपना सब कुछ समर्पित कर समाज के हित में काम किया और इस

 दलित समाज की मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया वो लोग समाज मे सम्मान के पात्र बने  और समाज ने उनके सम्मान में उनको 
कुछ उपनामों से नवाज़ा  जिसमे ज्योतिबा फुले को समाज ने “ महात्मा” कहा वही पर डॉ. अंबेडकर को “ बाबा “ कहा तथा 

जगजीवन राम भारत के पहले दलित उप-प्रधानमंत्री को “ बाबू “ कहा और दलित पिछड़ो को बहुजन पहचान के तले इकठ्ठा कर आत्मनिर्भर राजनीति की और ले जाने वाले कांशीरम को “ साहब “ के नाम दिया गया |

दलित और पिछड़े समाज का आंदोलन सामाजिक सम्मान से शुरू होकर वो राजनेतिक प्रतिनिधित्व की और बढ़ रहा हैं | दलितो वंचितों को मान सम्मान देने का काम और कानूनी रूप मे लागू करने का श्रेया बाबा साहब भीम राव राम जी अंबेडकर को जाता हैं ।
बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर को समाज के वंचित , दमित , दलित  एवं शोषित समाज की मुखर आवाज के रूप मे जाना जाता हैं साथ ही साथ उन्हे  भारत के सविधान निर्माता, महिलाओ के संरक्षक आदि तमाम अर्थो मे भी उनका स्मरण किया जाता हैं|

 वर्तमान समय मे गाहे- बगाहे हम बाबा साहब अंबेडकर के बारे मे कुछ न कुछ सुनते ही रहते पिछले 60 वर्षो मे बाबा साहब पर जितना काम नहीं हो सका किसी कारण वश पर आज की सरकार ने कम से कम कुछ ही समय मे बाबा साहब को दलितो - वंचितों मात्र की पहचान से निकाल कर सर्वसमाज के कल्याण की कल्पना करने वाले और उनके हितो मे काम करने वाले नेता के रूप मे जरूर दिखाने का काम किया हैं | 
अब बाबा साहब को केवल और केवल दलितो पिछड़ो का उद्धारक ही नहीं अपितु उनको सर्व समाज के नेता के रूप मे देखा जाने लगा हैं, यहा तक लाने का कार्य कम से कम तत्कालीन एनडीए सरकार ने जरूर किया हैं जिसकी जितनी ज्यादा तारीफ हो कम हैं | बाबा साहब अंबेडकर और उनके द्वारा समाज के लिए किए गया कार्य को आज न तो भारत की सरकार खारिज कर सकती हैं बल्कि दुनिया मे जब भी अन्याय ( injustice ) और उत्पीड़न की मुखालफत करने की बात आएगी बाबा साहब अंबेडकर को वहा पर स्मरण करना अनिवार्य हो जायगा इसीलिए डॉ अंबेडकर को symbol of justice, dignity , social harmony and the champion of social justice  आदि तमाम नामो से जाना जाता हैं| 

अंबेडकर की एक पहचान  उत्पीड़न के खिलाफ एक सशक्त आवाज के रूप मे उभर कर आयी हैं , आगे हम इसी पहचान और उस आधार पर समाज के हाशिये के लोगे के एकजुटतीकरण पर विस्तार से चर्चा करेंगे | 
पहचान हैं क्या? कियू समाज मे पहचान की आवश्यकता होती हैं? , समाज की दमित जातियो मे ये पहचान की राजनीति किस प्रकार से काम करती हैं? इनहि सभी पक्षो को जानने का प्रयास हम अपने आगे  करेंगे |

पहचान और उस आधार पर राजनीति :- 

पहचान क्या हैं :- पहचान का अर्थ identity जिसे Cambridge इंग्लिश हिन्दी dictionary मे देखा जाए तो सरल शब्दो मे बताया गया हैं “ जो व्यक्ति कौन हैं , वो (व्यक्ति) एवं समुदाय अन्यों से किस प्रकार भिन्न हैं ये  भिन्नता ही उसकी पहचान हैं “ ओर विस्तार मे जाए तो देखते हैं , व्यक्ति का अन्यों से परिचय कराने का माध्यम ही पहचान हैं , मैं कौन हु ? यहा से अपनी पहचान का निर्माण होना प्रारम्भ होता हैं | जब कोई व्यक्ति या समाज ये सोचता हैं की मैं हु कौन और मेरा इतिहास क्या हैं किस वंश परंपरा से मैं जुड़ा हु , मेरे पूर्वज कौन हैं या मैं उनके जैसा कियू हु ये वो स्थिति हैं जहा व्यक्ति की पहचान का निर्माण होना प्रारभ होने लगता हैं| पहचान व्यक्ति क्या हैं ? मैं कौन हु ? को स्पष्ट करता हैं, पहचान व्यक्ति को दखल प्रदान करता हैं , वह क्या हैं उसकी क्या पहचान हैं , किन आधारो पर वह अन्यों से भिन्न हैं | जैसे जाति , लिंग , धर्म , समुदाय , व्यवसाय  , आदि सभी व्यक्ति की एक अपनी निजी पहचान उपल्बध करता हैं | व्यक्ति के अंतर मन के प्रशनों का हल हैं उसकी पहचान , जहा पहचान किसी व्यक्ति को कुछ गुण , कर्म के आधार पर किसी वर्ग संरचना , समुदाय के साथ जोड़ती हैं वही पर ये पहचान उसको अपने गुणो के आधार पर किसी से अलग भी करती हैं पहचान को विभिन्न लोगो अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने का कार्य किया हैं | के ॰ सी ॰ दास कहते हैं “ पहचान व्यक्ति के स्वय के स्तर से जुड़ी हैं तथा समुदाय के आधार पर उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा से भी जुड़ी हैं ( दास :2004:57 )|  इसी कड़ी मे केथवूड वर्ड ( kethwood word) कहते हैं “ पहचान व्यक्ति और विश्व के बीच संबंधो को स्थापित करती हैं , पहचान खुद को जानने और उसके बारे मे व्यक्ति क्या सोचते हैं से संबन्धित हैं, पहचान आपको समाज से परिचित कराती हैं उनका मानना हैं की व्यक्ति की एक साथ कई पहचान हो सकती हैं जैसे की एक महिला / पुरुष , व्यवसायी , आदि एक व्यक्ति बहू पहचान ( multi identity ) के साथ भी समाज मे रहता हैं ( केथवूड वर्ड:2002 :5 )|
पहचान को लेकर विभिन्न विद्वानजनो ने तमाम विचारो को व्यक्त किया लेकिन अगर संछेप मे देखे तो पहचान व्यक्ति का व्यक्ति से और उसका समाज से परिचय कराने का माध्यम होता हैं ,पहचान व्यक्ति को जानने मे मदद करती हैं|  
भारत मे पहचान को लेकर अगर बात करे तो दुनिया के देशो बताने के लिए की भारत हैं क्या को विष्णुपुराण मे बताया गया हैं | एक शलोक हैं

                                “ उतरम यत समुद्रस्य हिमाद्रि चेव दक्षिणम | 
                                       वर्षम तद भारत नाम भारतीय संतति ||

        अर्थ  :-    जहाँ उतर मे समुन्द्र हैं दक्षिण मे हिमाद्रि पर्वत माला हैं ऐसी भूमि को भारत कहते हैं और उस पर बसने वाले लोगो को भारतीय कहा जाता हैं | 
इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं की पहचान का माहत्व कितना ज्यादा रहा हैं भारत और भारतीयता की पहचान को इस शलोक के माध्यम से बताया गया है | 
इसी प्रकार भारत के सामाजिक ढांचे को भी पहचान के आधार पर ही प्रदर्शित किया गया हैं अगर हम भारतीय वर्ण व्यवस्था को देखे जिसमे चतुर्वर्णीय सामाजिक व्यवस्था की बात की गई हैं इन चारो वर्णो की भिन्न -भिन्न पहचान रही थी चाहे उसका आधार कार्य या जन्म अथवा उनके रहने की परस्थितियो को लेकर ही कियू ना रहा हो | आप देखे चारो वर्णो का जन्म किस विराट पुरुष के शरीर से किया गया , जहा मुख से ब्राह्मण की भुजाओ से क्षत्रिय और पेट से वैश्य तथा चरणो से शूद्र का जन्म हुआ ये शरीर के हिस्से समाज मे एक पहचान के रूप मे भी चिनिहित किया गया जैसे जिसका जन्म हुआ वैसे समाज मे उसका ओहदा भी बनता चला गया ये सामाजिक स्तरियकरण ही अब उसकी पहचान और इसी आधार पर उसकी जीविका साधन उसका कार्य भी बन गया | सविधान के द्वारा भी विभिन्न जातियो को चिन्हित किया गया हैं आर इसी पहचान को  आधार मान कर उनको कुछ विशेष सुविधाओ के नाम पर आरक्षण जैसा प्रावधान भी किया गया |

समाज की संरचना मे अगर देखे तो वर्षो से विभिन्न पहचानो को निर्मित किया गया हैं | कही रंग को लेकर भी पहचान को निर्मित किया गया हैं दुनिया के देशो मे श्वेत और अश्वेत ये दो भिन्न पहचान रही हैं महात्मा गांधी , मार्टिन लूथर किंग की लड़ाई इस रंग के आधार पर होने वाले भेद को लेकर ही था , वही भारत मे ये स्वर्ण – अवर्ण की पहचान का रहा हैं जिसे कबीर से लेकर कांशीराम तक के दलित और वंचित समाज मे जन्मे महापुरुषों ने लड़ा हैं| इस काले-गोरे भेद के खिलाफ पहचान की राजनीति के अंतर्गत “ब्लेक पेंथर” आंदोलन चलाया गया इसी के साथ तमाम नारो को निर्मित किया गया “ ब्लेक इस बियूटीफूल( black is beautiful) “ जैसे नारे अधिक प्रचालन मे आए जहा काले रंग को हेय दृष्ठि से देखा जाता था वही पर उसको अपनी महान पहचान के साथ जोड़ा दिया गया | वही भारत मे दलित शब्द समाज की हिकारत , उत्पीड़न का शब्द न होकर इस सामाज की समूहिक पहचान और आत्मसम्म्न के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा हैं |  

वामपंथी विचारको ने समाज का बटवार ही भिन्न पहचानो के आधार पर किया , सामंत और किसान , मालिक और मजदूर ये सभी भिन्न पहचान समूह हैं | समाज मे लमबंदिकरण सदेव से पहचान के आधार पर  होता रहा हैं |  भारतीय समाज मे और हिन्दू सामाजिक संरचना मे अगर देखे तो जातियो का जन्म विभिन्न वर्णो की पहचान के आधार पर ही निर्मित किया गया हैं |

 पहचान का महत्व : दलित और वंचित समाज मे पहचान का क्या महत्व हैं : दलित , दमित , वंचित समाज मे अगर उनकी अस्मिता और उसके मायनों , उसके महत्व को देखा जाए तो वो काफी अधिक हैं | इसका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता हैं की दलित समाज अधिकतर अनपढ़ा समाज हैं उसे बोद्धिक बातो को समझाना थोड़ा मुश्किल हैं परंतु किसी पहचान के सहारे उसको दिखा  कर बताना अधिक सरल रहता हैं | 
इस पर कांशीराम ( बीएसपी संस्थापक ) कहते हैं “ हमारा (दलित , पिछड़ा समाज) समाज पढ़ा- लिखा नहीं हैं उसे विचार समझाना ज्यादा कठिन हैं , लेकिन कोई प्रतीक दिखाकर उसको, उसकी पहचान के साथ जोड़ना या समझाया आसानी जा सकता हैं (साक्षात्कार अरुण कुमार , बीएसपी संस्थापक सदस्य )|

अंबेडकर पूर्व और पश्चात मे पहचान की राजनीति :-    दलित बहुजन आंदोलन मे पहचान का माहत्व अधिकाधिक रहा हैं  जिसकी शुरूवात आज की है ऐसा नहीं हैं बल्कि वर्षो पूर्व पहचान और उस के आधार पर समाज का संगठन करने की प्रक्रिया का शुभारभ्भ हो चुका था | हा ये अलग बात हैं की ज्योतिबा फुले के द्वारा पहचान के सहारे लोगो का संगठन करना या यू कहे  की उनका एक निसान, एक पहचान के सहारे इकठ्ठा करने का एक सफल प्रयास जरूर  किया गया था | परंतु ये कहना की फुले से पहले वंचित समाज की कोई पहचान नहीं थी इसको एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता हैं | भारतीय समाज मे पहचान और उस आधार पर व्यवहार , समाज मे हिस्सेदारी , उनका स्तर ये सभी पहचंके साथ बंधी रही थी और आज भी हैं |
भारत मे विधमान धार्मिक मतो, पंथो के बारे मे ही देखा जाए तो भी काफी ज्यादा अंतर उनकी पहचान के आधार पर दिख जाता हैं| हिन्दू को यदि धार्मिक मत के रूप मे देखा जाए तो प्रमुख तीन भिन्न सम्प्रदाय हमे इसी मे दिख जाते हैं | शेवाचार्य ( शिव के उपासक ) , वैष्णवाचार्य (भगवान विष्णु के उपासक ) और शाक्त्या (देवी के उपासक) इसके अलावा भी निराकाररूपी समाज भी समाज मे व्यापात हैं , प्रकृतिपूजकों की भी भारत मे लंबी परंपरा रही हैं इन सभी का संगठन और आपसी लगाव, जुड़ाव एक समान गुणो , पूर्वजो , संस्कृतियो का एक होना रहा हैं | 
इसी प्रकार गुरु गोरखा नाथ द्वारा प्रारम्भ किया “ गोरखनाथी पंथ “  ऐसा  ही एक संप्रदाय था जिसने अपनी भिन्न पहचान का निर्माण किया | असल मसले को यदि देखा जाए तो देखे की पहचान कियू जरूरी हैं ,पहले ही बताया जा चुका हैं की किसी भी समाज या व्यक्ति की कुछ विशेष गुण या अवगुण होते हैं जिनके आधार पर उसको अन्य लोग से भिन्न मान उसकी भिन्न पहचान बनती हैं | पहचान का जन्म ही व्यक्ति या समाज के कुछ विशेषता के आधार पर होता हैं | 

भारत मे विभिन्न सम्प्रदायो का जन्म भी किसी विशेष पहचान के आधार पर ही निर्मित की गई हैं | भारत मे जाति और वर्णो का विभाजन भी एक पहचान समूह के रूप मे ही तो निर्मित किया गया हैं | ब्राह्मण कौन हैं उसका गुण धर्म क्या हैं ये गुण धर्म उसकी पहचान हैं , इसी प्रकार क्षत्रिय , वैश्य, शूद्र वर्ग या वर्ण की पहचान को निर्मित किया गया इसी विभाजन ने समाज मे दलित समाज को जन्म दिया | अगर गोरखपंथ की बात की जाए तो उनके उद्बोधन से लेकर वेश-भूषा तक उनकी समाज मे भिन्न पहचान को परदर्शित कर देता  हैं| अलख निरंजन उनका उदबोधन हैं और कानो का फटा होना उनकी पहचान इसी क्रम मे कबीर को देखे कबीर ने निराकार ईश्वर का रूप देखा और व्यक्ति का कल्याण हो जिस मे कोई उच-नीच का भाव न हो पहचान की राजनीति मे कबीर वो पहले पात्र हैं जो  वंचित समाज की भिन्न पहचान को निर्मित करने की शुरवात करते हैं कबीर पंथीयो ने भी पहचान की राजनीति को निर्मित करने का कार्य किया| कबीर पंथी अपने उद्घोष मे “ साहब “ कहते हैं और अंतरमन के देवता की बात करते हैं अवधि मे एक भजन हैं “ पिपरे पथरे को हर काऊ पूजे भीतरे के मन काऊ न पूजे “ इसी प्रकार रविदास , गुरु घसीदास आदि तमाम संतो ने पहचान और वंचित समाज की पहचान को निर्मित करने का कार्य किया |
 
दलित वंचित समाज की राजनीति और उनकी भिन्न पहचान के आधार पर उनका संगठन करना इसकी शुरवात विधिवत रूप से अगर देखे तो ज्योतिबा फुले के द्वारा प्रारम्भ कि गई | फुले ने दलित बहुजन समाज को सेठ जी और भट्ट जी की अवधारणा को निर्मित कर समाज का स्पष्ट विभाजन किया , जिसमे एक वर्ग साधन सम्पन्न हैं और दुसरा वर्ग दीन-हीन स्थिति मे हैं | फुले ने आर्य और अनार्य की भिन्न पहचान के आधार पर दो वर्गो को निर्मित करने का भी कार्य किया जो बाद के दिनो मे मूलनिवासी और बाहर से आए हुए आर्यों के रूप मे दो भिन्न पहचानो के रूप देखा जाने लगा | इस विचार ने  दलित - बहुजन समाज को बाहर से आए आर्य वर्ग से संघर्ष की अहम प्रेरणा देना का काम किया | अब ये बात अलग है की आर्य बाहर से आए या वो इसी देश के ही थे इस पर न जाकर ब्राह्मण का अर्थ आर्य और इसका मतलब बाहर से आया हुआ माना गया | दक्षिण भारत मे समाज की अगड़ी कही जाने वाली जाति भी गैर ब्राह्मण आंदोलन मे अहम भूमिका मे रहे | फुले ने विष्णु के बावन अवतार को बहुजन राजा हिरणक्षयप के साथ किए छल के रूप मे दिखाया |

 इसी प्रकार छत्रपति साहू जी महाराज ने “बहुजन राजनीति” की बात की और बहुजन समाज को सरकार, शासन एवं प्रशासन मे उचित प्रतिनिधित्व देने का काम किया पहली बार छत्रपति साहू जी ने दलितो ,पिछड़ो को सरकारी सेवाओ मे विशेष अवसरो (आरक्षण) को दिये जाने की बात की , इसी प्रकार दक्षिण भारत मे द्राविड पहचान को निर्मित किया गया , द्रविड़  पहचान ,भाषा के आधार पर समाज को संगठित करने का कार्य किया द्रविड़ आंदोलन के सूत्र पाद रामास्वामी पेरियार थे एम.सी. राजा आदि ने भी मद्र्स प्रसिडेंसी मे दलितो की पहचान को निर्मित करने का कार्य किया | ये वही दोर हैं जब मेसुर के राजा वड्यार ने पिछड़ो दलितो को शिक्षण संस्थानो और राजकीय नौकरियो मे आरक्षण दिया | पंजाब के बाबू मंगुराम के द्वरा दलितो वंचितों की आदि-धर्मी पहचान को निर्मित किया गया वही उत्तर प्रदेश मे स्वामी अछूतन्नद के द्वारा , कर्नाटक मे तमाम देश के भागो मे आदि- धर्मी पहचान को वंचित वर्ग के लिए निर्मित किया गया | वही मोहनदास करमचंद गांधी के द्वारा दलितो को हरिजन पहचान दी गई खेर उसको दलितो ने एक सिरे से नकार दिया 1932 के बात अंग्रेज़ो ने इस समाज को सूचीबद्ध कर उसे अनुसूचित जाति- जनजाति एव अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप मे एक पहचान दी |

डॉ अम्बेडकर ने भी असप्र्श्य, दलित , डिप्रेस्सेड , शब्दो का अपने लेखो मे खूब प्रयोग किया , बाबा साहब ने समाज के अस्प्र्श्यजनों की भिन्न पहचान कि बात तो की परंतु वे भारत के मूलनिवासी और बाहर से आए आर्य और अनार्य के प्रश्न पर ना उलझ कर सभी को भारत की संतान  मानते हैं | बाबा साहब “ शूद्रो की खोज “ मे कहते हैं की शूद्र सूर्य वंश के क्षत्रिय हैं और आर्य बाहर से नहीं आए सभी एक ही जाति के हैं”( प्रस्तवाना )  |
बाबा साहब अम्बेडकर ने समाज के वंचित , दमित, दलित वर्ग की आज़ादी की बात की और पुरातन हिन्दू सामाजिक संरचना पर आधारित व्यवस्था की बड़े ही कठोर शब्दो मे आलोचना की वे अपने वक्तव्यो और लेखो के माध्यम से वर्ण व्यवस्था और उस आधार पर दलितो के साथ हुए तमाम प्रकार के उत्पीड़न को भी समाज के सामने रखते हैं इस उत्पीड़न से मुक्ति की लड़ाई को लड़ने के लिए आम समाज का आवाहन भी करते हैं | प्राचीन वर्ण व्यवस्था और उस आधार पर होने वाले उत्पीड़न के कारण समाज मे एक वर्ग को मनुष्य भी नहीं माना गया था और उसकी पहचान थी उसका निमम्न जाति मे पैदा होना | निम्मन जाति मे जन्म का अर्थ हैं की आप अन्यों से नीचे चले गए | इस उच -नीच का भाव चलयामान हिन्दू समाज मे अधिकाधिक था और भले ही कुछ जड़े ढीली पड़ी हैं पर आज भी ये व्यवस्था कयाम हैं , जिस कारण से बाबा साहब ने हिन्दू समाज की अधिक आलोचना भी की और हिन्दू समाज को लोकतान्त्रिक समाज नहीं माना |  

अंबेडकर के अनुसार कोई समाज कैसे लोकतान्त्रिक होता हैं इसके लिए कुछ बातो का होना आवश्यक होता हैं लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मापने के लिए वो कुछ तत्वो की बात करते हैं एक स्वतंत्र और लोकतान्त्रिक समाज के लिए तीन तत्व होने जरूरी हैं  । 
 (1).स्वतन्त्रता ( liberty )
 (2). समानता ( Equality )
 (3).बंधुत्व अथवा भाई चारा ( Fraternity )

      इन तीन आधारो पर वो किसी समाज के स्वतंत्र समाज हैं या नहीं इसकी जांच करते हैं वे कहते हे हिन्दू समाज की संरचना के मूल मे ही आसमानता हे अगर हम समानता तत्व की पड़ताल करते हैं तो देखे की हिन्दू समाज की संरचना वर्ण व्यवस्था  पर आधारित हैं | ये वर्ण व्यवस्था  हिन्दू जाति व्यवस्था को जन्म देता हैं  हिन्दू वर्ण व्यवस्था मैं व्यक्ति का जन्म एक  विराट पुरुष के शरीर के अंगो से बना हैं ऐसा माना जाता हैं इस  विराट पुरुष के मस्तिषक से ब्राह्मण का जन्म  हुआ हैं , सीने से , भुजाओ से क्षत्रिया , पेट से वैश्य , चरणों से शूद्रो का जन्म हुआ |

        ब्राह्मणोस्य मुखमासीद बहुरजन्य: कृत : |
        उरुतदस्य यद्धवेशय : पदभ्यो: शूद्रोजायत ||
                               ( ऋग्वेद ,10 मण्डल,13 शलोक )

इसी आधार पर जो शरीर की जीतने ऊपर के अंग से पैदा हुआ उसका उतना ही समाज मे उचा स्थान हैं | बाबा साहब इसी को श्रेणीगत असमानता ( Graded inequality ) कहते हैं |
अंबेडकर कहते हैं:-

        हिन्दू समाज एक बहुमंजिला इमारत हैं , जिस मे सबसे ऊपर के महाले (floor) पर ब्राह्मण हैं, उससे  नीचे क्षत्रिया हैं जो ब्राह्मण के बाद श्रेष्ठ हैं, तीसरी मंजिल पर वैश्य हैं , चौथे मंज़िले पर शूद्र हैं जो सबसे नीचे स्तर पर हैं वही एक अछूत समाज हैं जो  वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं  हैं” |

समाज मे असमानता का वातावरण इसी वर्ण व्यवस्था का परिणाम है इसी निचली – उचली , वर्ण व्यवस्था के कारण जाति का जन्म हुआ |
 अंबेडकर कहते हैं:-

 निसंदेह जाति – व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था का ही विकसित रूप हे , लेकिन वर्ण व्यवस्था के अध्ययन से हम जाति – व्यवस्था की कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते जाति का अध्ययन वर्ण को अलग रखकर करना होगा ( बा.अ.स.वा. खंड -10,पृष्ठ 52 )|
 
इसमे कोई दो राय नहीं की वैदिक काल की समाज व्यवस्था वर्णो पर आधारित थी परंतु ये वर्ण किसी पर पूर्वनिर्धारित थे यानि की इनका निर्धरण क्या जन्म पर आधारित था इस पर काफी भिन्न -भिन्न मत हमे मिलते हैं , अंबेडकर ने भी वर्णो का निरधारण जन्म पर बहुत बाद की व्यवस्था मे प्रचालन मे आया ऐसा माना हैं |
 इसी वर्ण और जाति के जन्म और उस पर आधारित  भेद ने कुछ भी हो पर समाज के एक वर्ग का इसी जाति  के कारण जन्म हुआ , और इसी व्यवस्था के कारण वो असप्र्श्य और बाद मे दलित बना |
आज का दलित समाज पूर्व के वर्ण से उपजी  जाति ही तो हैं, आज जिसकी संख्या अनुमानत: 6700 जातिया के रूप मे हैं और लगभग 117 गोत्र हैं| इसी जाति के कारण वर्षो से दलित समाज का उत्पीड़न होता आ रहा है और आज भी बदस्तूर उत्पीड़न जारी है|
 अंबेडकर ने जाति को हिन्दू समाज की संरचना का मूल माना और इसके उछेद (annihilation) की मांग की समाज से जाति व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए| अपने द्वारा जाति तोड़क मण्डल को लिखे पत्र मे बाबा साहब ने जाति को पूर्णत: समाप्त करने की वकालत की हिन्दू समाज मे व्यापात जाति के कारण मनुष्य – मनुष्य का आपस मे भेद कोई एक दूसरे को छूने से भी परहेज करते हैं इसी से समाज मे अश्प्र्श्यता आ गाई |
अंबेडकर ने कहा:-
                          अस्प्र्श्यता एक सामाजिक धारणा हैं जिसने एक प्रथा का रूप धारण कर लिया”
                                                                                                                 ( बा.अ.स.वा. खंड -10,133)|

जिसने समाज मे इन्सानो को जानवर से भी बदतर स्थिति मे ला खड़ा किया | एक जानवर किसी तलाब का पानी पी सकता हैं पर इंसान होकर भी वो तलब का पानी नहीं पी सकता , रोड पर चल नहीं सकता | अंबेडकर ने पेशव काल का वर्णन अपनी पुस्तक “ जाति प्रथा का उच्छेद “ मे विस्तार से किया है उन्होने बताया की पेशाव काल मे दलित समाज के लोगो को अपने गले मे मिट्टी की हांडी लटकानी पड़ती थी कियूकी वो कही भी थूक नहीं सकते थे , वो अपने गले मे बंधी  की हांडीया मे ही थूक सकते थे , कमर मे झाड़ू बंधा गया कियूकी उनके चलने से सार्वजनिक सड़क गंदी ना हो जाए इसलिए वो अपनी कमर मे झाड़ू बांधे , पैरो मे घुंघुरू भी बांधने पड़ते थे इसका करना थे दलितो के कही से गुजरने से पूर्व ही घुंघुरुओ की आवाज से स्वर्ण हिन्दुओ को ये संकेत मिल जाए की दलित अब गुजरने वाले हैं और वो वह से हट जाए | ये तो महाराष्ट्र के पेशवाओ की व्यवस्था थी अगर केरला को देखा जाये तो वह शूद्र महिलाए अपने स्तन नहीं ढक सकती थी अगर किसी और को स्तन ढकने हो उसे “स्तन ढकने का कर (breast tax)” देना पड़ता था | ये अश्प्र्श्यता धीरे -धीरे एक प्रथा का रूप लेना लगी और फिर छुआ -छूत ने धर्म का लबादा ओढ़ लिया |
अम्बेडकर कहते हैं की :-
              “जाति व्यवस्था का जन्म भले ही मनु न किया हो परंतु मनु ने ही वर्णो     की पवित्रता का अहम उपदेश जरूर दिया | जैसे की मैंने पहले ही स्पष्ट किया हैं , वर्ण – व्यवस्था जाति की जननी हैं और इस अर्थ मे मनु जाति – व्यवस्था का जनक न भी हो परंतु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता हैं| जाति व्यवस्था के संबंध मे मनु का दोष क्या हैं , इसके बारे जहे जो स्थिति हो , परंतु इस बारे मे कोई प्रश्न ही नहीं उठता की श्रेणीकरण और कोटी-निर्धारण का सिधान्त प्रदान करने के लिए मनु ही जिम्मेदार हैं” ( बा.अ.स.वा. खंड -6,44 )|

जाति के अलावा बाबा साहब ने हिन्दू समाज मे नारी की स्थिति पर भी अपनी चिंता व्याकत की अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से हिन्दू महिलाओ की मुक्ति की बात की हिन्दू समाज मे महिलाओ को दूसरे दर्जे का नागरिक ही माना हैं |
                                                 ढ़ोल गवार शूद्र पशु नारी|
                                              सब हैं ताड़ना के अधिकारी||
                                                                       ( तुलसीदास रामायण )

इसी प्रकार एकवल्क्य धर्म सूत्र मे कहा गया की स्त्री , कौआ दोनों मे झूठ और अंधकार निहित हैं | अम्बेडकर पहचान की राजनीति समग्रता मे देखे तो बाबा साहब अंबेडकर पूर्व और उनके आने तथा उनके पश्चात दलित पहचान और अस्मिता आधारित राजनीति का अंत कही से भी नहीं हुआ बल्कि और ज्यादा बढ़ा ही इस अस्मिता आधारित राजनीति को हम दो हिस्सो मे बाँट कर देखने का प्रयास करते हैं |

1.      आज़ादी से पूर्व की दलित राजनीति : इस संदर्भ प्रारम्भ मे कुछ बाते काही जा चुकी हैं भारत मे दलित- बहुजन राजनीति को प्रतिनिधित्व देने का काम सर्वप्रथम छत्रपति साहू जी महाराज ने 1902 मे  किया और मेसुर के राजा ने 1918 मे दोनों ने  अपनी रियासत मे सरकारी नौकरियों मे कुछ पदो को इन दमित शोषित जातियो के लिए आरक्षित कर दिया इस से पूर्व महत्मा ज्योतिबा फुले ने शिक्षा के दरवाजो को दलितो,वंचितों के लिए खोले जाये की वकालत की थी जिसके परिणाम स्वरूप 1889 मे गुजरात के सरकार द्वारा पोषित एक विघालय मे  एक दलित बच्चे का प्रवेश हुआ था | फुले ने दलितो मे जहा शिक्षा  का प्रचार करने का कार्य किया वही दलितो वंचितों , पिछड़ो को भिन्न पहचान भी देने का कार्य किया ये ही वो समय था जहा पर “ बहुजन समाज “ शब्द का प्रयोग किया गया | वही पर राजा बलि और विष्णु के दावरा उसको धोखे से सब( राज-पाठ ) लेना इसको फुले ने बड़े विस्तार से बताया बहुजनों की गुलामी के पीछे हिन्दू धर्म और उसके द्वारा स्थापित कर्मकांड ही बहुजनों की गुलामी का कारण हैं (नेमिशराय:2004:52) | 
      इसी लिए फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और “सार्वजनिक सत्य धर्मकी स्थापना की ये धर्म सभी धर्मो को अपने अंदर प्रवेश देता हैं इसकी विशेषता है की इसमे  पिता बौद्ध होगा , माता क्रिश्चन ,बेटी मुस्लिम , बेटा सत्यधर्मी  परंतु फुले इसमे  हिन्दू धर्म को वो जगह नहीं देते ( ओमवेट:200:22 ) | सत्यधर्मी बनाने से फुले सीधा -सीधा ब्राह्मणवाद को चुनोति देते हैं और तमाम कहानियो के माध्यम बहुजनों मे उनके गौरवशाली इतिहास के बारे मे बताना और उनको संगठित कर वर्तमान व्यवस्था की मुखालफत करना |
राजनीति मे दलितो वंचितों को पहचाने जाने का कार्य उत्तर मे हिन्दी पट्टी मे धरमदास और स्वामी अछूतानन्द के संघर्ष को जाता हैं | जटाव वीर सेना , जटाव महा सभा आदि ने जहा दलितो मे शिक्षा का प्रसार - प्रचार किया वही पर उनको सामाजिक हित के कार्यो को करने मे उनकी सक्रियता को बढ़ाया | वही आर्य समाज के प्रचारक स्वामी अछूतानन्द ने प्रारम्भ मे आर्य समाज के माध्यम से दलितो - वंचितों मे शिक्षा का खूब प्रचार किया परंतु आर्य समाज मे भी दलित समाज के साथ होते द्वेम दर्जे के व्यवहार को देखा तो आर्य समाज से भिन्न होकर “आदि-धर्म” का आंदोलन चलाया , ये आदि धर्म का आंदोलन दलित समाज को अन्य समाज मे भिन्न पहचान देती हैं और साथ ही साथ उनको हिन्दू धर्म के इतर एक विकल्प भी प्रदान करता हैं (कुमार : 2011:59)| जहा उत्तरप्रदेश मे इस आदि आंदोलन को स्वामी अच्छुतनंद और उनके साथी चला रहे थे वही पंजाब मे बाबू मंगुराम की देख - रेख मे “ आदि धर्मी “  आंदोलन चलाया जा रहा था जो भिन्न पहचान और भिन्न रीति संस्कार   ( Different identity and Different culture) की बात कर रहे थे | बाबू मंगुराम ने बाबा साहब अंबेडकर को एक पत्र के माध्यम से दलितो के हिन्दुओ से भिन्न प्रीतिनिधित्व की बात की और इसी प्रकार का एक पत्र ब्रिटिश सरकार को भी लिखा |
पंजाब मे भिन्न दलित अस्मिता (Dalit identity) को प्रतिस्थापित करने का कार्य बाबू मंगु राम ने किया , मंगु राम 1940 मे पंजाब विधान सभा मे जलंधर से विधान सभा सदस्य चुने गए | इसी पहचान की राजनीति के क्रम मे देखे तो पूरे देश मे आदि धर्म , आदि द्र्विण(आंध्रप्रदेश ) नमो शूद्र ( बंगाल प्रांत ), आदि हिन्दू आंदोलन ( कानपुर ) , आदि कर्नाटक ( कर्नाटक ) नाम से तमाम आंदोलनो को चलाया गया इसमे महत्वपूर्ण बात ये थी ये सारे आंदोलन बाबा साहब अंबेडकर के आंदोलन से कही भी अलग नहीं थे | केरल मे अयंकली , नारायण गुरु दलितो वंचितों के मसीहा के रूप मे सामने आए तो मद्रास मे श्रीनिवास, एम.सी. राजा, रामा स्वामी पेरियार आदि ने दलितो- पिछड़ो को भिन्न पहचान देने का काम किया , उसी बीच वह  “ द्रवीण आंदोलन “ भी चलाया गया , आर्य और द्रविड़ तो भिन्न पहचान और भिन्न संस्कृति की बात करता हैं |
इन अस्मिता आधारित आंदोलनो ने दलितो पिछड़ो के बीच सम्मान पूर्वक जीवन जीने की इच्छा को पैदा की साथ ही साथ समाज मे सभी स्थानो पर समान अवसर मिले , सभी को संसाधनो मे हिसा मिले की बात की गई और सब ने समाज के शोषित समाज मे एक आशा की किरण दिखाने का कार्य किया |
दलित अस्मिता की राजनीति की शुरुवात असलरूप मे तो महात्मा फुले ने प्रारम्भ की परंतु उसको और अधिक पैना करने का कार्य बाबा साहब अंबेडकर , मान्यवर कांशीराम ने किया बाबू जगजीवन राम के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता उसके भिन्न पक्ष जरूर हो सकते हैं

स्वतन्त्रता के पश्चात का दलित अस्मिता की राजनीति :-

दलितो वंचितों , पिछड़ो का आंदोलन जिसकी शुरवात  महात्मा ज्योतिबा फुले से होते हुए बाबा (डॉ अम्बेडकर ), बाबू (जगजीवन राम ) , और साहब ( कांशीराम )  पर आ कर पहुचता हैं , सार्वजनिक स्थानो के प्रयोग से सदनो मे प्रवेश के आंदोलन से अब मंत्रालय और सचिवालय और उधयोगलय तक आ पहुचा हैं और अब देवलाया मे भी इस वंचित समाज के लोग हो इसकी बात होने लगी हैं |
                                             वोट से होंगे सी.एम. , पी. एम.
                                             आरक्षण से एस. पी., डी. एम.

दलितो ने इस बात को समझा हैं की समाज संसाधनो पर नियंत्रण किस का है सामाजिक संस्कारो पर किसका नियंत्रण हैं इस लिए अब वो कहने लगा हैं |
       हमे प्रवेश चाहिए “ विधनालाया, सचिवालाया , मंत्रलाया , उधयोगालया और देवलाया “ ये सभी स्थानो पर दलित वंचितों को प्रीतिनिधित्व देना होगा | पहचान का संघर्ष केवल सामाजिक स्वीकारिता से प्रारम्भ होकर आज सभी स्थानो मे पहचान के आधार पर हिस्सेदारी का हो गया हैं |
        आज़ादी मिलने के बात बाबा साहब अंबेडकर ने रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया की स्थापना की जिसे उनके बात विभिन्न हिस्सो मे बाँट कर तमाम दलित नेताओ ने चलाया  परंतु फिर भी आर .पी. आई. का आंदोलन इसके काफी बड़े मायने थे और दलित राजनीति मे एक बड़ी दखल भी थी |

रिपब्लिकन पार्टी आफ  इंडिया  (आर पी आई ) के ही कुछ नेता और कुछ अमूलचुल परिवर्तनवादी दलित नेताओ द्वरा संचालित  Dalit panther movement ने दलितो वंचितों के अंदर आत्मसम्मान को पैदा किया और सार्वजनिक स्थानो के प्रवेश और सत्ता मे हिस्सेदारी की मांग की नामदेव ढासाल जैसे पैंथर आंदोलन के नेताओ ने दलितो मे निर्भीक राजनीति करने की चाह को पैदा किया इस आंदोलन के बीच ही बाबू जगजीवन राम भी दलित राजनीति मे एक सितारे के रूप मे उभर कर आए और आज़ाद भारत के पहले उप- प्रधानमंत्री बने जिसने दलितो के भीतर एक निर्भीक राजनीति और सम्मान की राजनीति की चाह जरूर पैदा की बिहार मे करपुरी ठाकुर , भोला पासवान का मुख्यमंत्री बनना इसमे एक और संयोग था | ये वो दौर था जब महाराष्ट्र मे एक और “दलित पेंथर” आंदोलन चल रहा हैं उसी के  साथ साहब कांशीराम  बामसेफ बना दलित वंचित ,पिछड़े समाज के कर्मचारियो का संगठन कर रहे थे वही दूसरी और राजनीतिक फ़लक पर दलित समाज के लोग राजनीतिक रूप से मजबूत हो रहे थे  |
विभिन्न राजनीतिक दल दलितो के मुद्दे के साथ आकर्षित हो रहे थे जिसमे राष्ट्रीय स्वेम सेवक संघ का समरसता मंच  बनना एक ऐतिहासिक घटना थी जहा पर संघ पर तमाम दलो द्वारा बहुत से आरोपों को लगाया गया जिसमे उसे मनुवाद का प्रबल समर्थक कहा गया और इस आधार पर बडी आलोचना भी की गई परंतु संघ के ही  कार्यकर्ताओ  ने और  विशेष कर संघ की छात्र इकाई अखिल भारतीय  विद्यार्थी परिषद ने नामान्तरण आंदोलन  मे सक्रियत से भाग लिया और  जिसके  परिणाम स्वरूप मारठवाडा यूनिवर्सिटी का नाम बाबा साहब अम्बेडकर जी के नाम पर रखा गया ।
इसी  प्रकार के कई सामाजिक आंदोलनो का निरत्व और उनमे सक्रिय सहभागिता राष्ट्रीय स्वेम स्वेक संघ और उसके संगिक संगठनो ने की ये नामांतर आंदोलन दलित बहुजन महापुरुषों के नाम पर सरकारी संगठनों का नाम रखने के साथ जुड़ा था (कुमार :2017: )| 

इसी नामांतरण आंदोलन के प्रबल समर्थक रहे कांशीराम ने बाबा साहब अंबेडकर के बाद दलित – पिछड़ो की भिन्न राजनीति और भिन्न प्रतिको  की राजनीति  की और इस समाज को नई पहचान “ बहुजन “ के रूप मे दी तीन मूर्ति और बड़े बदलाओ की बाद कांशीरम ने की वे जनता के सामने फुले , साहू और अंबेडकर को लेकर गए महाराष्ट्र की इन तीनों महानविभूतियों को वह से बाहर निकाल कर पूरे देश मे ले गए बहुजन समाज की जनता को महात्मा ज्योतिबा फुले , साहू जी महाराज और बाबा साहब अंबेडकर से परिचय कराया ।
              
साथ ही साथ तमाम और किस्से कहानियो के माध्यम से दलितो के बीच अपने महापुरुषो के समाज मे योगदान को बताने का कार्य किया जो ये पहले बार हुआ बाब साहब अंबेडकर के बाद आर . के . चौधरी ( बीएसपी संस्थापक सदस्य ) “ साहब ने डीएस-4 के माध्यम से बहुजन समाज के महापुरूषो के सामाजिक योगदान को दलित बहुजन समाज को बताया और भिन्न दलित - बहुजन पहचान को बनाने का काम किया “ अब बहुजनों की राजनीति दलित बहुजन नायको के इर्द-गिर्द घूमने लगी कांशी राम ने रानी झाँसी के योगदान को नकारा नहीं पर छलकारी बाई , उदा देवी पासी , महबीरी देवी भंगी , मातादीन भंगी , के योगदान को बताने का कार्य किया |
               
 विभिन्न बहुजन प्रतीक के सहारे दलितो – पिछड़ो को संगठित कर उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रदेश मे सरकार बनाई जिसमे भाजपा ने भी साथ दिया , पर दलित अस्मिता की राजनीति से सत्ता मिल सकती हैं ये कांशी राम और उससे पूर्व बाब साहब अंबेडकर ने कर दिखाया | आज बाबा साहब अंबेडकर के प्रतीक का लगना ही दलितो मे आत्मसम्मान को पैदा करता हैं , प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं “ बाबा साहब अंबेडकर की मूर्तिया  (statue) मात्र पत्थर पर उकेरी कोई आकार नहीं हैं बल्कि ये दलितो , पिछड़ो , कमजोर तबको के लिए नव जीवन के आस हैं , बाबा साहब की मूर्ति दलितो मे अत्मस्वभिमान  पैदा करती हैं “|
वर्तमान समय मे दलित राजनीति मे पहचान का अधिका धिक महत्व हैं जब एक और दलितो का इतिहास पुन: खोजने का कार्य हो रहा हैं वही पर दलितो मे सत्ता – सरकार मे हिस्सेदारी की चाह और अधिक बढ़ रही हैं | दलितो की भिन्न पहचान राजनीति की शुरवात ज्योतिबा फुले से प्रारम्भ होते जिसे बाद मे दलितो- पिछड़ो ने महात्मा कह कर संबोद्धन दिया और सम्मान किया वही डॉ.भीमराव रामजी अंबेडकर को बाबा साहब कहा गया , आज़ादी के बाद उभरे दलित वंचितों के निर्तत्त्व ने जगजीवन राम को बाबू कहा वही मान्यवर कांशीराम को साहब के सम्बोधन से सदेव सम्मान दिया |   

                               संदर्भ ग्रंथ सूची
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15.  B.R. Ambedkar Volume : 6,19,13 , Publication Ministry of Social justice  , Govt. of India
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Jadhav, Narendra (1991) , DR. Ambedkar contribution to Indian Economics







      :- तुलनात्मक राजनीति और राजनीतिक सिद्धांत ,अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालया ,नई दिल्ली  


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