बाबा साहब अम्बेडकर के बाद देश भर में और विशेषकर हिंदिपट्टी की प्रांतो में तेज़ी से दलित बहुजन आंदोलन चला , बनारस उत्तरप्रदेश में जहाँ 60 के दशक में बाबा साहब अम्बेडकर की मूर्ति लगा दी गई तो वही राममनोहर लोहिया आदि ने 80 के दशक तक बाबा साहब अम्बेडकर और उनके विचारों को समाजवादी चासनी में डुबो ख़ूब बहूजनो दलितों के आगे परोसा 50 के दशक में देश की राजनीति में पिछड़ो की सूचीकरण की माँग उठी और इसी को ध्यान रखते हुए राष्ट्रपति की संतुती पर 29 जनवरी 1953 को काका कलेकार की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गई जिसका कार्य विभिन्न पिछड़ी जातियों को सूचीबद्ध करना था,इससे पूर्व अंग्रेजो के द्वारा दलित अस्पृश्य समाज एवं जनजातिये समाज को पहले ही सूचीबद्ध किया जा चुका था। वही 70 के दशक में दलित पेंथर आंदोलन और रिपब्लिकन पार्टी के आंदोलन और उनकी माँगो ने उत्तर भारत , महाराष्ट्र प्रांत आदि में बहूजनो विशेषकर दलितों के मध्य चेतना जागरण का बड़ा कार्य किया । उत्तर पट्टी में विशेषकर फैले समाजवादी आंदोलन ने जहाँ दलितों पिछड़ो के बीच एक नेतृत्व पैदा किया वही उनमें समाज बदलाव की तीव्र इच्छा भी जागृत करने का काम किया । समाजवादी आंदोलन का जन्म उसी समता के मूल चिंतन पर आधारित था जिसकी बात भारत के देशिक चिंतन और गांधी, हेडगेवर,अम्बेडकर ने की थी इसी लिए नारा लगाया की “सबको शिक्षा, स्वस्थ्य एक समान हो राजा या हो मेहतर की संतान”,धन धरती बट के रहेगी भूखी जनता चुप ना रहेगी । समाजवादी आंदोलन ने समाज की बड़ी आबादी पिछड़ी जातियों- दलित अस्पृश्या जातियों को संगठित करने की बात की देश की आम ग़रीब जनता को देश के शासन सत्ता में हिस्सेदारी मिले इसके लिए समाजवादियो ने नारा दिया था संसोपा ने बंधी गाँठ पिछड़े पावे सो में साठ , जाति पाँति नहीं चलेगी , परिवरवाद ना जातिवाद सबसे आगे समाजवाद”। इन विभिन्न नारों को गड़ा गया और इन नारों को लगाने वाले कोई और कोई नहीं आज के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव,लालू यादव,रामविलास पासवान, नीतीश कुमार , शरद यादव आदि थे । वही 80 के दशक में कांशीराम जी के नेतृत्व में दलित बहुजन आंदोलन ने भारत की राजनीति और विशेषकर उत्तर भारत की राजनीति में ज़बरदस्त दस्तक दी जिसने लोहिया के समाजवाद और बाबा साहब अम्बेडकर के समता के विचार दोनो को समाहित कर आगे बढ़ने का रास्ता अपनाया जिसका सफल परिणाम भी 1993 के चुनाव में देखने को मिला , जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की युती ने देश के सबसे बड़े सूबे में सरकार बनाई। वही ये वो दौर था जिसने बिहार में लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनाया और देश में जनता पार्टी की सरकार भी बनी,ये तो दलित बहुजन आंदोलन के सुखद छण थे। लेकिन सत्ता सुख और परिवारवादी विचारों ने इस आंदोलन को भी धीरे-धीरे खोखला कर दिया है इसी का परिणाम है कभी कांशीराम ने राजीव गांधी को कहा थे आपने हम से उत्तरप्रदेश में समझोता कर लाभ ले लिया लेकिन जब हम आपसे पंजाब में हिस्सेदारी चाहते है तो आप मुकर रहे है लेकिन हमारी शक्ति आपको पंजाब के चुनाव में सत्ता से बेदख़ल करने को काफ़ी है। ये ताक़त बहुजन दलित आंदोलन की रही है आज दलित बहुजन आंदोलन बड़ी पार्टियों की बेसाखी के सहारे आगे बढ़ने की मनसा लेकर ही काम कर रही है, इसके पीछे ये वंशवाद परिवरवाद के विचार में फँस जाना है। इस परिवरवाद का डर कभी राम मनोहर लोहिया को था इसीलिए वे जब जयप्रकाश जी को लिखे अपने पत्र में लिखते है कि “ जयप्रकाश आप में बहुत शक्ति है आप देश में हलचल पैदा कर उसमें परिवर्तन ला सकते है लेकिन बस आप मज़बूती से टिके रहना क्यूँकि आप परिवारिक है और मैं आवारा हूँ , आपके सामने भावना, सम्बंध आड़े आ सकते है लेकिन आप अडिक रहे तो बदलाव तय है” 80 के दशक में तेज़ी से उभरी बहुजन समाज पार्टी के प्रमुख मान्यवर कांशीराम ने अपने जीवन में कभी अपने परिवार से कोई वास्ता नहीं रखा और अपने बाद मायावती के हाथ में पार्टी की बागडोर सौंप दी लेकिन आज मायावती जी क्या उस नियम पर टिकी है जिसमें कार्यकर्ता को महत्व ना की परिवार को अभी पिछले ही लोकसभा चुनाव में मायावती जी ने अपने भतीजे को सीधा मंच पर लाकर एवं अपने भाई को पार्टी का उपाध्यक्ष बना क्या संदेश दिया क्या वो वंशवाद की बीमारी को बहुजन दलित राजनीति से उभरे जन आंदोलन को परिवार विकास , उन्नति के साथ नहीं जोड़ रही है ? वही लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान ने जब पार्टी प्रमुख की गद्दी छोड़ी तो अपने बेटे के हाथ सब सौंप दिया वही उनके भाई , भतीजे, दामाद आदि ही पूरी पार्टी के अहम पदों पर है, क्या सभी अवसरों को एक परिवार तक सीमित कर देना ही बहुजन दलित आंदोलन से उपजे दलो का ध्येय था ये विचार ही थे क्या अम्बेडकर,लोहिया , जयप्रकाश आदि के। परिवार वाद , वंशवाद को लेकर अगर देखे तो चौधरी चरण सिंह जी ने अपने जीवन में कर दिखाया था जब अपने पुत्र को पार्टी का मुखिया ना बना मुलायम सिंह यादव को आगे किया था लेकिन आज ये सूचिता कहाँ रही राष्ट्रीय जनता दल के नेता मनरेगा जैसी योजना के सूत्रधार रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी अपने जीवन के अंतिम समय में इसी वंशवाद और परिवरवाद पर ही अपनी टीस निकाली,लालू यादव को लिखे अपने पत्र में उन्होंने इसी परिवरवाद की ही आलोचना करी। समाजवादी आंदोलनो से उभरे मुलायम और लालू यादव जी ने क्या परिवार से बाहर सत्ता का विकेंद्रीकरण किया तो ऐसा नहीं किया, ये तो दलित बहुजन दलो का प्रश्न है देश की सबसे बूढ़ी पार्टी कांग्रेस में भी पुत्र मोह ने पूरी ही पार्टी को ख़स्ता हाल में ला खड़ा किया है वही पंडित दीनदयाल के विचार को मानने वाले भी इस परिवरवाद से क्या मुक्त हुए तो ऐसा नहीं है । अन्य छोटी पार्टी उत्तर से दक्षिण तक अमूमन एक परिवार की पार्टियाँ ही बन कर रह गई है जनता केवल समर्थक है और कुछ नहीं। बहुजन दलित आंदोलन को कम से कम इस परिवरवाद से बचाना होगा नहीं तो बाबा साहब द्वारा खड़ा सारा आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा।
SWARAJ भारत की आवाज
Wednesday, September 23, 2020
परिवरवाद की भेंट चढ़ता बहुजन-दलित आंदोलन - डॉ. प्रवेश कुमार
Monday, August 31, 2020
स्वदेशी स्वावलंबन अभियान से बनेगा सशक्त भारत, होगी चीन की आर्थिक हार- डॉ. प्रवेश कुमार
भारत में चीन एक ओर जहाँ गाहे-बगाहे अपनी सीमा को लेकर अनावश्यक विवाद को जन्म देता ही रहता है वही दूसरी ओर भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल जैसे राष्ट्रों को भारत के ख़िलाफ़ भड़का कर किसी न किसी रूप से भारत में विवाद को बनाए रखना चाहता है। इन सबके बावजूद आज भी भारत से चीन का व्यापार कोई कम नहीं। अगर 2019 के आँकड़ों को ही देखें तो चीन से हमारा व्यापार लगभग 92.68 अरब डालर का है, जिसमें भारत ने चीन से 74.72 अरब डालर आयात किया है जबकि चीन ने भारत से मात्र 17.95 अरब डालर का ही आयात किया है । इस आधार पर भारत का चीन से व्यापार घाटा 56.77 अरब डालर का है। ये घाटा आयात-निर्यात के आधार पर निकाला जा रहा है लेकिन इसमें समझने वाली बात यह है कि चीन भारत से अपने व्यापार का मात्र 3 प्रतिशत ही विनिमय करता है जबकि भारत सन्दर्भ में यह आँकड़ा लगभग 9 प्रतिशत के क़रीब है। जिसमें हम फ़रमास्यूटिकल इंडस्ट्री से सम्बंधित व्यापार ही कुल खपत का 90 प्रतिशत करते है और इलेक्ट्रोनिक में 45 प्रतिशत के क़रीब है। इसी सबको लेकर लद्धाख के और दुनिया भर में पर्यावरण पर काम करने वाले सोनम वांगचूग का एक विडीओ पिछले दिनों सोशल मीडिया में ख़ूब चर्चा में रहा। उसमें वो कहते हैं कि- “चीन हमसे इतना पैसा कमाता है और उसी पैसे पर वो पाकिस्तान और नेपाल को हमारे ख़िलाफ़ खड़ा करता है वही बार-बार सीमा विवाद करता है कभी अरुणाचल प्रदेश, कभी गलवान घाटी में विवाद को जन्म देता है, इसलिए चीनी समान के बहिष्कार से चीन की आर्थिक कमर तोड़ी जा सकती है।”
चीन अपनी विस्तारवादी नीति से कभी भी बाज़ नहीं आता। अभी हाल ही में लद्दाख के एक हिस्से में चीन के द्वारा सीमा विवाद का जन्म देना इसका साक्षात् उदाहरण है, हालाँकि भारत के सेना और सरकार से उसे वाजिब जवाब भी दिया। लेकिन सेना तो अपना काम मुस्तैदी से करेगी ही और कर भी रही है परन्तु हम भारत के लोग भी क्या कुछ कर सकते हैं, जिससे चीन को कुछ हानि पहुँच सके? तो इसका जवाब है स्वदेशी जागरण मंच द्वारा संचालित “स्वदेशी स्वावलम्बन अभियान”। स्वदेशी जगराण मंच का मानना है की इस कोरोना काल में लगभग 49.8 करोड़ लेबर फ़ोर्स में लगभग 13 करोड़ लोग या तो बेरोज़गार हुए हैं या उनकी आय 20 से 30 प्रतिशत तक घटी है, ऐसे में हमें अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए स्वदेशी को अपनाना होगा। सरकार बहुत ज़्यादा रोज़गार सृजन करेगी ऐसा नहीं है, समाज को ही रोज़गार सृजन करने का बीड़ा उठाना होगा। ये स्वावलम्बन के विचार से ही पैदा हो सकता है।
स्वदेशी जागरण मंच में प्रांत सह-संयोजक विकास चौधरी जी कहते हैं कि- “कोई देश अगर खड़ा हुआ है तो वो अपने संसाधनों से ही उभरा है, अपनी युवाशक्ति अपने छोटे-बड़े उद्योगों के शक्ति पर। इसलिए आत्मनिर्भर भारत अभियान के लिए स्वदेशी स्वावलम्बन अभियान एक सकारात्मक दिशा देता है जिससे भारत देश सशक्त बन सकता है।” इसके कितने ही प्रमाण दिए जा सकते है पूज्य दत्तोपंत जी ठेंगडी ने एक उदाहरण देते हुए जापान को लेकर कहा था कि- “एक बार अमरीकी सरकार ने ज़बरदस्ती जापान की मंडियो में संतरा भेज दिया। जापान की मंडियो में सारा संतरा पड़ा-पड़ा ख़राब हो गया परंतु किसी जापानी ने उसे ख़रीदा नहीं ये ही तो स्वदेशी एवं प्रखर राष्ट्र भक्ति है”। ये ही आधार हमें और हमारे देश के लोगों को आत्मनिर्भर बना सकता है और पुनः देश की अर्थव्यवस्था अपनी पटरी पर आ सकती है।
स्वदेशी का विचार ज़्यादा लोगों की सहभगिता और ग्राम स्वावलम्बन के विचार से जुड़ा है। भारत में सदैव से ग्राम आधारित पेशे रहे हैं। हमारे यह ज्ञाती का विचार था न की जाति का। ज्ञाती व्यक्ति के किसी विशेष कुशलता पर आधरित थी। इस स्वदेशी प्रतिमान में लोगों को काम आसानी से मिल जाता था और वही समान का वितरण भी सरल था । जितनी आवश्यकता उतना निर्माण वही जितने की लागत उसमें थोड़ा मुनाफ़ा जोड़ते हुए समान की क़ीमत का निर्धारण इससे उपभोक्ता का भी लाभ उत्पादक का भी मुनाफ़ा ये ही तो स्वदेश का विचार है। ये ही स्वदेश का विचार ही हमें स्वावलंबी बना सकता है। हमारे ग्रामीण समाज में अपने हाथ के हुनर को जानने वाले तमाम लोग हैं, क्या उनको थोड़ा-सा सहारा देकर हम उभर नहीं सकते? स्वदेशी “स्वावलम्बन” अभियान इस विचार को लेकर चला है की छोटी कार्य इकाइयों और छोटे उद्योगों में लगे लोगों को प्रोत्साहित करना, जिससे वे अपने काम को और विस्तार दे सकें, जिसके लिए सरकार भी उनकी सहायता करे और देश में अधिक से अधिक रोज़गार का सृजन हो । अभी स्वदेशी अभियान की एक बैठक में मेरा भी जाना हुआ जिसमें एक महिला जिसने कपड़े सिलने की दुकान खोली और आज उन्होंने 70 से अधिक लोगों को रोज़गार दे रखा है, ऐसे ही कई छोटे कामगारों को सम्मानित करना आवश्यक है। भारतीय समाज में जब उदारीकरण आया तो इस छोटे कामगारों की चिंता नहीं की गई। यदि उसी समय इन कुटीर उद्योगों की तरफ सार्थक ध्यान दिया गया होता तो आज वस्तुस्थिति कुछ और ही होती ।
1991 में उदारवाद, निजीकरण, वैश्वीकरण का जब तेज़ी से प्रसार हुआ तब तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के मन में एक आशा दिखाई गई कि बस अब जादू की छड़ी की तरह दुनिया की सारी असमानता समाप्त हो जाएगी, लोगों को रोज़गार मिलेगा, इन पिछड़े विकासशील राष्ट्रों में तरक़्क़ी आयगी परंतु हुआ क्या ये सारे राष्ट्र केवल केवल उन्नत राष्ट्रों के लिए मंडिया ही तो बनकर रह गई, जिसमें बड़े राष्ट्रों के बने समान की भारी खपत इन विकासशील राष्ट्रों में होने लगी, इसलिए सरकारें कोई निर्णय लेगी इस पर कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन समाज ज़रूर निर्णय ले सकता है, यही से स्वदेशी विचार का जन्म हो जाता है, जिसमें हम किसी का विरोध नहीं करते बल्कि अपने देश के बने समान को ही अपना मान उसको स्वीकार करते है।
आज के इस पूरे कोरोना काल में हम सभी के जीवन को कौन बचा रहा था तो वही हमारे अपने स्वदेशी, स्थानीय उत्पादक ही तो थे। अगर देश में खुलकर किसी ने दान किया तो कौन थे, हमारे देश के अपने उद्योगपति रतन टाटा ने 1500 करोड़ कोरोना से निपटने के लिए दिए अन्य भी भारत के उद्योगपतियों ने दान किया लेकिन क्या जोनसन एंड जोनसन, हिंदुस्तान लिवर, टोयोटा कार निर्माता कम्पनी या तमाम नामी ब्राण्ड जो भारत से करोड़ों का व्यापार करते रहे हैं क्या इन सबने भारत की कोई सहायता की। तो उत्तर आता है नहीं, तो ऐसे समय में भारत के लोगों को क्यू नहीं अपनी चीज़ों के लिए स्थानीय निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये । इसको लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने “लोकल के लिए वोकल” का नारा दिया। आज हमें हमारे उत्पादन को स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहित करके अपने देश को स्वावलंबी भारत की और ले जाना होगा। इसी में हमारे राष्ट्र का गौरव तथा उसके निवासियों का सम्मान निहित है।
Wednesday, July 22, 2020
डॉ. बी. आर. अंबेडकर हिंदू धर्म के पुजारी: विचार और प्रासंगिकता- डॉ.प्रवेश कुमार
Monday, May 25, 2020
भारतीय संस्कृति के तत्त्व ही दुनिया को बचा सकते हैं किसी भी महामारी से
Tuesday, May 5, 2020
समतामूलक समाज निर्माण में प्रतिनिधित्वरूपी आरक्षण ज़रूरी
डॉ.प्रवेश कुमार
भारत में ग़रीबी और उससे जुड़े मुद्दे जैसे कभी अंत होने का नाम नहीं लेते उसी प्रकार आरक्षण भी ऐसा मुद्दा है जो कभी भी अपने को चर्चा से अलग कर ही नहीं पता समय-समय पर अल्लादिन के चिराग़ वाले जिन्न की तरह निकल कर बाहर आ ही जाता है, ओर फिर शुरू हो जाता है चर्चा का दौर सभी सरकारें वोट बैंक की चिंता में अपने को आरक्षण के समर्थक होने का दवा करते नहीं थकती है और अन्य को इस आरक्षण के दमनकर्ता के रूप में दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ती है। देश की सबसे बूढ़ी पार्टी कांग्रेस बार-बार ये चिल्ला के कहती है हमने ही तो आरक्षण के प्रावधान को सविधान में डाला हम ही असल में सामाजिक न्याय के सच्चे अलंबरदार है परंतु ये बोलते ये भूल जाती है की आप ही ने बाबा साहब को उनकी मृत्यु के लगभग 40 सालों के बाद तक भी भारत रत्न नहीं दिया था । वही भारतीय जनता पार्टी के दावे कुछ यथार्थ में ज़रूर दिख जाते है चाहे बाबा साहब अम्बेडकर से जुड़े पाँच तीर्थ निर्माण का प्रश्न हो अथवा अम्बेडकर जी को दलित नेता की छवि से निकल राष्ट्र निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर बनाने का विषय हो भाजापा इन दावों पर खरी ज़रूर उतरती है लेकिन मुद्दा बाबा साहब का सम्मान और उनका सम्मान ना करना नहीं है असल मुद्दा बाबा साहब जिन मुद्दों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे क्या आज भी उन मुद्दों को हम सुलझा पाए है , हाँ कुछ मुद्दे ज़रूर वर्तमान सरकार ने सुलझाए है जिसमें अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न क़ानून को मज़बूत करना,जम्मू- कश्मीर से धारा 370 को हटाना , पाकिस्तानी से आए हिंदुओ को भारत की नागरिकता देना। लेकिन हम देखे बाबा साहब अम्बेडकर जिस स्व-प्रतिनिधित्व की बात 1918 की साउथबोरो समिति के सामने उठा रहे थे और आज़ाद भारत के सविधान में भी जिस प्रतिनिधित्व की बात की जिसे हम आरक्षण कहते है , इस आरक्षण की आवश्यकता कियु हुई जो लोग आए दिन आरक्षण का विरोध करते नहीं थकते उनको ये जानना , समझना ज़रूरी है भारत में 1852 में सबसे पहले कुछ सरकारी सेवाओं में पदों को भारत के पढ़े लिखे लोगों के लिए आरक्षित किया गया , फिर सरकारी शिक्षण संस्थानो में आरक्षण किया गया जिसमें धारवाड में एक दलित बच्चे को प्रवेश मिला 1902 में छत्रपति साहू जी महाराज ने सरकारी नौकरियो में आरक्षण का प्रावधान किया वही 1921 के बाद दक्षिण भारत में मुख्यतः मद्रास में आरक्षण लागू किया गया , 1932 में गांधी और अम्बेडकर के बीच हुए पूना पेक्ट ने पूरे देश में आरक्षण के प्रावधान को मान्यता दी। ये आरक्षण उस वर्ग को समाज और राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जोड़ने के लिए है जिसे वर्षों उसकी जाति के कारण उत्पीड़न सहना पड़ा था ये आरक्षण तीन मुख्य आधारों पर आधारित है जिसमें जाति अस्पृश्यता , गन्दे व्यवस्या एवं शैक्षिक पिछड़ेपन को आधार माना गया। भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था में जाति और उस आधार पर उत्पीड़न का एक लम्बा दौर रहा है, ये आरक्षण इसी वर्ग को न्याय दिलाने हेतु एक अल्पकालिक उपाय है, बाबा साहब कहते है “ जिस तलब का पानी कुता , बिल्ली , जानवर एवं विदेशों से आए लोग भी पी सकते है वही इसी देश के लोगों को उसको छूंने ,पीने का अधिकार नहीं ये सरासर अमानवीयता है” कोई भी राष्ट्र तभी मज़बूत बन सकता है जब किसी राष्ट्र का सम्पूर्ण समाज एकात्मकता के तत्व पर खड़ा हो ,बाबा साहब ने भारत को एक सम्पूर्ण राष्ट्र बनाने हेतु ही सविधान में इस आरक्षण की व्यवस्था को जोड़ा। हालाकि देश में इतने वर्षों में समाज के दलित कहे जाने वाले वर्ग के जीवन स्तर में काफ़ी बदलाव भी आया है लेकिन आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद क्या सामाजिक समता उनको मिली है तो ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
Wednesday, April 17, 2019
सामाजिक न्याय, अंत्त्योदय के विचारों पर बढ़ती मोदी सरकार - डॉ प्रवेश कुमार
परिवरवाद की भेंट चढ़ता बहुजन-दलित आंदोलन - डॉ. प्रवेश कुमार
बाबा साहब अम्बेडकर के बाद देश भर में और विशेषकर हिंदिपट्टी की प्रांतो में तेज़ी से दलित बहुजन आंदोलन चला , बनारस उत्तरप्रद...
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वीर पासी , धीर पासी , बिबेक और गंभीर पासी | पासी समाज अपनी इन लिखी उक्त पंक्तियो की भात...
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बाबा साहब अम्बेडकर के बाद देश भर में और विशेषकर हिंदिपट्टी की प्रांतो में तेज़ी से दलित बहुजन आंदोलन चला , बनारस उत्तरप्रद...

