Wednesday, September 23, 2020

परिवरवाद की भेंट चढ़ता बहुजन-दलित आंदोलन - डॉ. प्रवेश कुमार

 

बाबा साहब अम्बेडकर के बाद देश भर में और विशेषकर हिंदिपट्टी की प्रांतो में तेज़ी से दलित बहुजन आंदोलन चला , बनारस उत्तरप्रदेश में जहाँ 60 के दशक में बाबा साहब अम्बेडकर की मूर्ति लगा दी गई तो वही राममनोहर लोहिया आदि ने 80 के दशक तक बाबा साहब अम्बेडकर और उनके विचारों को समाजवादी चासनी में डुबो ख़ूब बहूजनो दलितों के आगे परोसा 50 के दशक में देश की राजनीति में पिछड़ो की सूचीकरण की माँग उठी और इसी को ध्यान रखते हुए राष्ट्रपति की संतुती पर 29 जनवरी 1953 को काका कलेकार की अध्यक्षता में एक समिति बना दी गई जिसका कार्य विभिन्न पिछड़ी जातियों को सूचीबद्ध करना था,इससे पूर्व अंग्रेजो के द्वारा दलित अस्पृश्य समाज एवं जनजातिये समाज को पहले ही सूचीबद्ध किया जा चुका था। वही 70 के दशक में दलित पेंथर आंदोलन और रिपब्लिकन पार्टी के आंदोलन और उनकी माँगो ने उत्तर भारत , महाराष्ट्र प्रांत आदि में बहूजनो विशेषकर दलितों के मध्य चेतना जागरण का बड़ा कार्य किया । उत्तर पट्टी में विशेषकर फैले समाजवादी आंदोलन ने जहाँ दलितों पिछड़ो के बीच एक नेतृत्व पैदा किया वही उनमें समाज बदलाव की तीव्र इच्छा भी जागृत करने का काम किया । समाजवादी आंदोलन का जन्म उसी समता के मूल चिंतन पर आधारित था जिसकी बात भारत के देशिक चिंतन और गांधी, हेडगेवर,अम्बेडकर ने की थी इसी लिए नारा लगाया की “सबको शिक्षा, स्वस्थ्य एक समान हो राजा या हो मेहतर की संतान”,धन धरती बट के रहेगी भूखी जनता चुप ना रहेगी । समाजवादी आंदोलन ने समाज की बड़ी आबादी पिछड़ी जातियों- दलित अस्पृश्या जातियों को संगठित करने की बात की देश की आम ग़रीब जनता को देश के शासन सत्ता में हिस्सेदारी मिले इसके लिए समाजवादियो ने नारा दिया था संसोपा ने बंधी गाँठ पिछड़े पावे सो में साठ , जाति पाँति नहीं चलेगी , परिवरवाद ना जातिवाद सबसे आगे समाजवाद”। इन विभिन्न नारों को गड़ा गया और इन नारों को लगाने वाले कोई और कोई नहीं आज के बड़े नेता मुलायम सिंह यादव,लालू यादव,रामविलास पासवान, नीतीश कुमार , शरद यादव आदि थे । वही 80 के दशक में कांशीराम जी के नेतृत्व में दलित बहुजन आंदोलन ने भारत की राजनीति और विशेषकर उत्तर भारत की राजनीति में ज़बरदस्त दस्तक दी जिसने लोहिया के समाजवाद और बाबा साहब अम्बेडकर के समता के विचार दोनो को समाहित कर आगे बढ़ने का रास्ता अपनाया जिसका सफल परिणाम भी 1993 के चुनाव में देखने को मिला , जिसमें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की युती ने देश के सबसे बड़े सूबे में सरकार बनाई। वही ये वो दौर था जिसने बिहार में लालू प्रसाद यादव को मुख्यमंत्री बनाया और देश में जनता पार्टी की सरकार भी बनी,ये तो दलित बहुजन आंदोलन के सुखद छण थे। लेकिन सत्ता सुख और परिवारवादी विचारों ने इस आंदोलन को भी धीरे-धीरे खोखला कर दिया है इसी का परिणाम है कभी कांशीराम ने राजीव गांधी को कहा थे आपने हम से उत्तरप्रदेश में समझोता कर लाभ ले लिया लेकिन जब हम आपसे पंजाब में हिस्सेदारी चाहते है तो आप मुकर रहे है लेकिन हमारी शक्ति आपको पंजाब के चुनाव में सत्ता से बेदख़ल करने को काफ़ी है। ये ताक़त बहुजन दलित आंदोलन की रही है आज दलित बहुजन आंदोलन बड़ी पार्टियों की बेसाखी के सहारे आगे बढ़ने की मनसा लेकर ही काम कर रही है, इसके पीछे ये वंशवाद परिवरवाद के विचार में फँस जाना है। इस परिवरवाद का डर कभी राम मनोहर लोहिया को था इसीलिए वे जब जयप्रकाश जी को लिखे अपने पत्र में लिखते है कि “ जयप्रकाश आप में बहुत शक्ति है आप देश में हलचल पैदा कर उसमें परिवर्तन ला सकते है लेकिन बस आप मज़बूती से टिके रहना क्यूँकि आप परिवारिक है और मैं आवारा हूँ , आपके सामने भावना, सम्बंध आड़े आ सकते है लेकिन आप अडिक रहे तो बदलाव तय है” 80 के दशक में तेज़ी से उभरी बहुजन समाज पार्टी के प्रमुख मान्यवर कांशीराम ने अपने जीवन में कभी अपने परिवार से कोई वास्ता नहीं रखा और अपने बाद मायावती के हाथ में पार्टी की बागडोर सौंप दी लेकिन आज मायावती जी क्या उस नियम पर टिकी है जिसमें कार्यकर्ता को महत्व ना की परिवार को अभी पिछले ही लोकसभा चुनाव में मायावती जी ने अपने भतीजे को सीधा मंच पर लाकर एवं अपने भाई को पार्टी का उपाध्यक्ष बना क्या संदेश दिया क्या वो वंशवाद की बीमारी को बहुजन दलित राजनीति से उभरे जन आंदोलन को परिवार विकास , उन्नति के साथ नहीं जोड़ रही है ? वही लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख रामविलास पासवान ने जब पार्टी प्रमुख की गद्दी छोड़ी तो अपने बेटे के हाथ सब सौंप दिया वही उनके भाई , भतीजे, दामाद आदि ही पूरी पार्टी के अहम पदों पर है, क्या सभी अवसरों को एक परिवार तक सीमित कर देना ही बहुजन दलित आंदोलन से उपजे दलो का ध्येय था ये विचार ही थे क्या अम्बेडकर,लोहिया , जयप्रकाश आदि के। परिवार वाद , वंशवाद को लेकर अगर देखे तो चौधरी चरण सिंह जी ने अपने जीवन में कर दिखाया था जब अपने पुत्र को पार्टी का मुखिया ना बना मुलायम सिंह यादव को आगे किया था लेकिन आज ये सूचिता कहाँ रही राष्ट्रीय जनता दल के नेता मनरेगा जैसी योजना के सूत्रधार रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी अपने जीवन के अंतिम समय में इसी वंशवाद और परिवरवाद पर ही अपनी टीस निकाली,लालू यादव को लिखे अपने पत्र में उन्होंने इसी परिवरवाद की ही आलोचना करी। समाजवादी आंदोलनो से उभरे मुलायम और लालू यादव जी ने क्या परिवार से बाहर सत्ता का विकेंद्रीकरण किया तो ऐसा नहीं किया, ये तो दलित बहुजन दलो का प्रश्न है देश की सबसे बूढ़ी पार्टी कांग्रेस में भी पुत्र मोह ने पूरी ही पार्टी को ख़स्ता हाल में ला खड़ा किया है वही पंडित दीनदयाल के विचार को मानने वाले भी इस परिवरवाद से क्या मुक्त हुए तो ऐसा नहीं है । अन्य छोटी पार्टी उत्तर से दक्षिण तक अमूमन एक परिवार की पार्टियाँ ही बन कर रह गई है जनता केवल समर्थक है और कुछ नहीं। बहुजन दलित आंदोलन को कम से कम इस परिवरवाद से बचाना होगा नहीं तो बाबा साहब द्वारा खड़ा सारा आंदोलन धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। 
 :- सहायक प्राध्यापक ,सेंटर फॉर कंपैरेटिव पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल थ्योरी,स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज,जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली

Monday, August 31, 2020

स्वदेशी स्वावलंबन अभियान से बनेगा सशक्त भारत, होगी चीन की आर्थिक हार- डॉ. प्रवेश कुमार

                                                            


                                                                                                           

भारत में चीन एक ओर जहाँ गाहे-बगाहे अपनी सीमा को लेकर अनावश्यक विवाद को जन्म देता ही रहता है वही दूसरी ओर भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान, नेपाल जैसे राष्ट्रों को भारत के ख़िलाफ़ भड़का कर किसी न किसी रूप से भारत में विवाद को बनाए रखना चाहता है। इन सबके बावजूद आज भी भारत से चीन का व्यापार कोई कम नहींअगर 2019 के आँकड़ों को ही देखें तो चीन से हमारा व्यापार लगभग 92.68 अरब डालर का है, जिसमें भारत ने चीन से 74.72 अरब डालर आयात किया है जबकि चीन ने भारत से मात्र 17.95 अरब डालर का ही यात किया है । इस आधार पर भारत का चीन से व्यापार घाटा 56.77 अरब डालर का हैये घाटा आयात-निर्यात के आधार पर निकाला जा रहा है लेकिन इसमें समझने वाली बात यहै कि चीन भारत से अपने व्यापार का मात्र 3 प्रतिशत ही विनिमय करता है जबकि भारत सन्दर्भ में यह आँकड़ा लगभग 9 प्रतिशत के क़रीब है। जिसमें हम फ़रमास्यूटिकल इंडस्ट्री से सम्बंधित व्यापार ही कुल खपत का 90 प्रतिशत करते है और इलेक्ट्रोनिक में 45 प्रतिशत के क़रीब है। इसी सबको लेकर लद्धाख के और दुनिया भर में पर्यावरण पर काम करने वाले सोनम वांगचूग का एक विडीओ पिछले दिनों सोशल मीडिया में ख़ूब चर्चा में रहाउसमें वो कहते हैं कि- “चीन हमसे इतना पैसा कमाता है और उसी पैसे पर वो पाकिस्तान और नेपाल को हमारे ख़िलाफ़ खड़ा करता है वही बार-बार सीमा विवाद करता है कभी अरुणाचल प्रदेश, कभी गलवान घाटी में विवाद को जन्म देता  है, इसलिए चीनी समान के बहिष्कार से चीन की आर्थिक कमर तोड़ी जा सकती है।

चीन अपनी विस्तारवादी नीति से कभी भी बाज़ नहीं आताअभी हाल ही में लद्दाख  के एक हिस्से में चीन के द्वारा सीमा विवाद का जन्म देना इसका साक्षात् उदाहरण है, हालाँकि भारत के सेना और सरकार से उसे वाजिब जवाब भी दियालेकिन सेना तो अपना काम मुस्तैदी से करेगी ही और कर भी रही है परन्तु हम भारत के लोग भी क्या कुछ कर सकते हैं, जिससे चीन को कुछ हानि पहुँच सके? तो इसका जवाब है स्वदेशी जागरण मंच द्वारा संचालित “स्वदेशी स्वावलम्बन अभियान”स्वदेशी जगराण  मंच का मानना है की इस कोरोना काल में लगभग 49.8 करोड़ लेबर फ़ोर्स में लगभग 13 करोड़ लोग या तो बेरोज़गार हुए हैं या उनकी आ20 से 30 प्रतिशत तक घटी है, ऐसे में हमें अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए स्वदेशी को अपनाना होगासरकार बहुत ज़्यादा रोज़गार सृजन करेगी ऐसा नहीं है, समाज को ही रोज़गार सृजन करने का बीड़ा उठाना होगाये स्वावलम्बन के विचार से ही पैदा हो सकता है।

स्वदेशी जागरण मंच में प्रांत सह-संयोजक विकास चौधरी जी कहते हैं कि- “कोई देश अगर खड़ा हुआ है तो वो अपने संसाधनों से ही उभरा  है, अपनी युवाशक्ति अपने छोटे-बड़े उद्योगों के शक्ति परइसलिए आत्मनिर्भर भारत अभियान के लिए स्वदेशी स्वावलम्बन अभियान एक सकारात्मक दिशा देता है जिससे भारत देश सशक्त बन सकता है।” इसके कितने ही प्रमाण दिए जा सकते है पूज्य दत्तोपंत जी ठेंगडी ने एक उदाहरण देते हुए जापान को लेकर कहा था कि- “एक बार अमरीकी सरकार ने ज़बरदस्ती जापान की मंडियो में संतरा भेज दियाजापान की मंडियो में सारा संतरा पड़ा-पड़ा ख़राब हो गया परंतु किसी जापानी ने उसे ख़रीदा नहीं ये ही तो स्वदेशी एवं प्रखर राष्ट्र भक्ति है”। ये ही आधार हमें और हमारे देश के लोगों को आत्मनिर्भर बना सकता है और पुनः देश की अर्थव्यवस्था अपनी पटरी पर आ सकती है।

स्वदेशी का विचार ज़्यादा लोगों की सहभगिता और ग्राम स्वावलम्बन के विचार से जुड़ा हैभारत में सदैव से ग्राम आधारित पेशे रहे हैं। हमारे यह ज्ञाती का विचार था न की जाति काज्ञाती व्यक्ति के किसी विशेष कुशलता पर आधरित थी। इस स्वदेशी प्रतिमान में लोगों को काम आसानी से मिल जाता था और वही समान का वितरण भी सरल था । जितनी आवश्यकता उतना निर्माण वही जितने की लागत उसमें थोड़ा मुनाफ़ा जोड़ते हुए समान की क़ीमत का निर्धारण इससे उपभोक्ता का भी लाभ उत्पादक का भी मुनाफ़ा ये ही तो स्वदेश का विचार है। ये ही स्वदेश का विचार ही हमें स्वावलंबी बना सकता है हमारे ग्रामीण समाज में अपने हाथ के हुनर को जानने वाले तमाम लोग हैं, क्या उनको थोड़ा-सा सहारा देकर हम उभर नहीं सकते? स्वदेशी “स्वावलम्बन” अभियान इस विचार को लेकर चला है की छोटी कार्य इकाइयों और छोटे उद्योगों में लगे लोगों को प्रोत्साहित करना, जिससे वे अपने काम को और विस्तार दे सकें, जिसके लिए सरकार भी उनकी सहायता करे और देश में अधिक से अधिक रोज़गार का सृजन हो । अभी स्वदेशी अभियान की एक बैठक में मेरा भी जाना हुआ जिसमें एक महिला जिसने कपड़े सिलने की दुकान खोली और आज उन्होंने 70 से अधिक लोगों को रोज़गार दे रखा है, ऐसे ही कई छोटे कामगारों को सम्मानित करना आवश्यक है। भारतीय समाज में जब उदारीकरण आया तो इस छोटे कामगारों की चिंता नहीं की गई। यदि उसी समय इन कुटीर उद्योगों की तरफ सार्थक ध्यान दिया गया होता तो आज वस्तुस्थिति कुछ और ही होती

1991 में उदारवाद, निजीकरण, वैश्वीकरण का जब तेज़ी से प्रसार हुआ तब तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के मन में एक आशा दिखाई गई कि बस अब जादू की छड़ी की तरह दुनिया की सारी असमानता समाप्त हो जाएगी, लोगों को रोज़गार मिलेगा, इन पिछड़े विकासशील राष्ट्रों में तरक़्क़ी आयगी परंतु हुआ क्या ये सारे राष्ट्र केवल केवल उन्नत राष्ट्रों के लिए मंडिया ही तो बनकर रह गई, जिसमें बड़े राष्ट्रों के बने समान की भारी खपत इन विकासशील राष्ट्रों में होने लगी, इसलिए सरकारें कोई निर्णय लेगी इस पर कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता लेकिन समाज ज़रूर निर्णय ले सकता है, यही से स्वदेशी विचार का जन्म हो जाता है, जिसमें हम किसी का विरोध नहीं करते बल्कि अपने देश के बने समान को ही अपना मान उसको स्वीकार करते है

आज के इस पूरे कोरोना काल में हम सभी के जीवन को कौन बचा रहा था तो वही हमारे अपने स्वदेशी, स्थानीय उत्पादक ही तो थेअगर देश में खुलकर किसी ने दान किया तो कौन थे, हमारे देश के अपने उद्योगपति रतन टाटा ने 1500 करोड़ कोरोना से निपटने के लिए दिअन्य भी भारत के उद्योगपतियों ने दान किया लेकिन क्या जोनसन एंड जोनसन, हिंदुस्तान लिवर, टोयोटा कार निर्माता कम्पनी या तमाम नामी  ब्राण्ड जो भारत से करोड़ों का व्यापार करते रहे हैं क्या इन सबने भारत की कोई सहायता की। तो उत्तर आता है नहीं, तो ऐसे समय में भारत के लोगों को क्यू नहीं अपनी चीज़ों के लिए स्थानीय निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये । इसको लेकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने “लोकल के लिए वोकल” का नारा दियाआज हमें हमारे उत्पादन को स्थानीय उत्पादों को प्रोत्साहित करके अपने देश को स्वावलंबी  भारत की और ले जाना होगा। इसी में हमारे राष्ट्र का गौरव तथा उसके निवासियों का सम्मान निहित है।

 

Wednesday, July 22, 2020

डॉ. बी. आर. अंबेडकर हिंदू धर्म के पुजारी: विचार और प्रासंगिकता- डॉ.प्रवेश कुमार


                 


                  
                                                                                                            
         डॉ. अम्बेडकर जिन्हें आज दुनिया भीमराव राम जी अम्बेडकर “बाबा साहब” के नाम से जानती है, बाबा साहब के जीवन का एक ही अभीष्ठ था की भारत कैसे दुनिया को दिशा दे,कैसे सम्पूर्ण भारत का समाज संगठित हो एक सशक्त राष्ट्र बन सके आजीवन इसी के प्रयास में वे लगे रहे। उनके अनुसार एक आदर्श समाज वह समाज है  जो समानता ,स्वतंत्रता और बंधुता के विचारों पर आधारित है उनके अनुसार जाति व्यवस्था एक आदर्श समाज के निर्माण में घातक है तथा सिर्फ जाति व्यवस्था ही हिंदू को एक संगठित समाज या राष्ट्र बनने से रोकता है। जाति भावना की वजह से हिंदू एक संगठन में नहीं रह पाते हैं। हिंदुओं का जातियों में विभाजन एवं उनका सहनशील होना भारत की वर्षों की ग़ुलामी का एक कारण है इसलिए वे सदेव हिंदुओ के अंदर जाति व्यवस्था और अत्याधिक सहिष्णुता के खिलाफ थे। अम्बेडकर ने अपने जीवन के पहले प्रत्यक्ष संघर्ष की शुरुवत मंदिर आंदोलन से ही प्रारम्भ की थी, अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “जाति प्रथा का विनाश (Annihilation of Caste)” में हिंदू धर्म  में  सुधार एवं उनके संगठित होने हेतु निम्नलिखित उपाय बताये है-
पहला, उप जातियों को खत्म करे तथा आपस में भोजन और अंतरजातीय विवाह करें दूसरा शास्त्रों की पवित्रता को खत्म कीजिए या फिर शास्त्रों की उपयोगिता को जनता के सामने लेकर आए क्योंकि यह  फर्क नहीं पड़ता कि शास्त्रों में क्या लिखा है फर्क पड़ता है की लोगों ने शास्त्रों को कैसे समझा उदाहरण के तौर पर महात्मा बुध ,गुरु नानक ने हिंदू धर्म के सकारात्मक तर्को, विश्वासों का इस्तेमाल किया। इससे इन्होंने हिंदू धर्म के अंदर ही एक समतावादी तर्कपूर्ण और संगठित समाज का निर्माण करने का प्रयास किया।
तीसरा, अंबेडकर के लिए एक आदर्श धर्म की कुछ विशेषताएं हैं पहले एक धार्मिक किताब होनी चाहिए दूसरी पुजारी के पद को परीक्षा होनी चाहिए वह डिग्री आवश्यक हो तीसरा पुजारी को अन्य राज्य की सेवा की बराबरी का दर्जा मिले एवं उनकी संख्या निर्धारित की जाए तथा कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हो  (Page 67 annihilation of caste, DR. Babasaheb Ambedkar: Writing and Speeches Volume-1) उनके अनुसार भारत में लगभग सभी जाति के व्यक्तियों के शारीरिक बनावट एक जैसी है, बनावट के अंदर पर कोई भेद नहीं है अपनी बात की प्रमणिकता के लिए वे डी. आर. भंडारकर के निबंधफ़ोरेन एलिमेंट इन हिंदू पॉप्युलेशन” को आधार बनाते हुए कहते है की पंजाब का दलित, ब्राह्मण या जाट समुदाय इन सभी की शारीरिक बनावट एक  जैसी है,उनमें किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं दिखता है,अतः भारत की सभी जातिया एवं समूह चाहे वह दलित हो अथवा ब्राह्मण सभी एक ही नस्ल के लोगों का सामाजिक विभाजन पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है। बाबा साहब हिंदू समाज में सुधार करना चाहते है इसीलिए अपने जीवन भर वो इसके लिए प्रयासरत भी रहे, इसलिए वे मन्दिरो में अनुसूचित जाति के पढ़े लिखे व्यक्तियों को पुजारी बनाया जाए इसके प्रबल समर्थक थे ऐसी व्यवस्था के लाभ भी अम्बेडकर ने बताए है जिसमें  पहला इससे धर्म का पवित्र उद्देश्य पूरा हो पाएगा और  पुजारी व्यक्तियों को बेवकूफ नहीं बना पाएगा अर्थात धोखा नहीं दे पाएगा,दूसरा यह राज्य के नियंत्रण में आ जाएगा तीसरा हिंदू धर्म के प्रमुख उद्देश्य से हिंदू धर्म गतिशील बन जाएगा चौथा इसे जाति को भी खत्म किया जा सकेगा पांचवा  इसे हिंदू समाज, एक  जाति विहीन समाज बनेगा जो कि एक शक्तिशाली हिंदू राष्ट्र का आधार बनेगा फिर कभी भविष्य में भारत कभी गुलाम नहीं रहेगा।

हालाँकि दलितों का पुजारी बनने का इतिहास काफी पुराना है प्राचीन समय में मान्यता है कि वेदव्यास मछुआरे के बेटे थे वाल्मीकि अनुसूचित जाति  से आते थे शवपक की संतान मातंग ऋषि थे जो चांडाल थे उन्ही के पुत्र पराशर ऋषि थे,  इसके अलावा स्वामी विवेकानंद ने भी हिंदू धर्म के बारे मैं कहा था कि हिंदू धर्म इतना जातिवादी हो गया है कि इसमें पुरोहितों के रूप में सिर्फ ब्राह्मणों की ही नियुक्ति हो गई है,हमें सभी जाति के लोगों को समान अवसर देने होंगे”। 1927 में भी महात्मा गांधी के आह्वान पर पर मैसूर के राजा कृष्णराजा वाडियार ने मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में आरक्षण नीति का पालन करने का निश्चय किया। इसके अलावा वीर सावरकर ने भी अपनी रचनाओं में सभी हिंदू समुदाय और जातियों के लिए समान अवसरों की बात की है उन्होंने रत्नागिरी में 1931 में पतितपावन मंदिर बनवाया इसमें मंदिरों में दलित पुजारी की व्यवस्था की गई वही केरल में वायकाम आंदोलन के दौरान 1936 में त्रावणकोर के महाराजा ने दलितों के लिए मंदिरों में पुजारी के पद की व्यवस्था की।भारत की विभिन्न राज्य सरकारों ने डॉ.अंबेडकर के सामाजिक विचारों को पालन करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं,भारत के मंदिरों में दलित पुजारी को रखने की कोशिश की है।अभी हाल ही में केरल की सरकार ने भी लिखित परीक्षा और साक्षात्कार नियमों का पालन किया जिसमें  सरकार ने पब्लिक सर्विस कमीशन की तरह ही पुजारी को नियुक्त करने की प्रक्रिया आरंभ की,कोचिन देवास्वोम बोर्ड ने लगभग 1500 मंदिरों में पुजारी की नियुक्ति का फैसला लिया है इसमें सबरीमाला का प्रसिद्ध अय्यप्पा मंदिर भी शामिल है अभी तक 54 गैर-ब्राह्मणों को पुजारी नियुक्त किया है और इसमें भी खास बात ये है कि इन 54 पुजारियों में 7 दलित समुदाय से हैं।बोर्ड के जरिए केरल सरकार ने इस व्यवस्था को आधुनिक बनाने का प्रयास किया है। हाल ही में केंद्रीय सरकार ने भी बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों पर कार्य करने के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए गठित श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र' के ट्रस्ट में 15 ट्रस्टी में से एक पोस्ट दलित समुदाय के व्यक्ति के लिए सुरक्षित रखी है,इसका उद्देश्य देशभर में सामाजिक समरसता के भाव को आगे बढ़ाना है।इससे पहले 2019 में शिवराज सरकार ने भी पुजारियों के पद सभी वर्गों के लिए खोलने की पेशकश कही थी। वैसे देश भर में बहुत ए मंदिर है जिनमे दलित वर्ग से आने वाले वेदपाठी पुजारियों को नियुक्त किया गया है देश के वनवासी क्षेत्रों में मंदिर और जनजातियो का वहाँ  पुजारी होना बहुत पुरानी परम्परा का हिस्सा रही है,उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के लखना कस्बे में स्थित एक मंदिर साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक है. यहाँ लगभग 200 साल पुरानी परंपरा रही है इस मंदिर में दलित पुजारी ही रहते हैं तथा सभी ऊंची जाति के व्यक्ति उनसे आशीर्वाद लेते हैं, प्रार्थना करते हैं। इसकी शुरुआत 1820 में हुई थी जब स्थानीय प्रशासक जसवंत राव ने मंदिर का निर्माण किया था और छोटेलाल को पहला दलित जाति का पुजारी को मंदिर में नियुक्त किया था,तब से यह 200 साल पुरानी परंपरा चलती आ रही है यह लोगों के लिए प्रेरणा का स्थान है जहां पर दलित समुदाय का व्यक्ति पुजारी होता है यह समाज में एक प्रगतिशील एवं समतामूलक,समरस समाज के मूल्य पर आधारित है।

सहायक प्राध्यापक,
सेंटर फॉर कंपैरेटिव पॉलिटिक्स एंड पोलिटिकल थ्योरी
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज,
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी

Monday, May 25, 2020

भारतीय संस्कृति के तत्त्व ही दुनिया को बचा सकते हैं किसी भी महामारी से

डॉ. प्रवेश कुमार

वर्तमान में दुनिया जहाँ कोरोना नामक महामारी से ग्रस्त है, लाखों की संख्या में लोगों ने अपना जीवन गँवाया है वहीं भारत में इस महामारी का उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना की दुनिया ने अपेक्षा की थी, क्योंकि यहाँ संख्या की विशालता इतनी है कि पश्चिम के कई राष्ट्र समाहित हो जायेंगे। इन सबके बावजूद भी भारत कभी भी विश्व अथवा मानवता के लिए खतरा बनकर नहीं उभरा। यह तथ्य ध्यातव्य है की आज तक जितनी भी महामारी दुनिया में आयी सबकी शुरुत हमेशा से तीसरी दुनिया अर्थात् विकासशील के देशों से ही हुई। ये देश ही सर्वप्रथम किसी महामारी से ग्रस्त हुए और दुनिया के विकसित देश प्रायः इससे अपनी सुरक्षा ही करते रहे, लेकिन ये कोरोना महामारी जिसकी शुरुत किसी विकाशील देश नहीं बल्कि चीन, इटली अमेरिका जैसे अधिक विकसित राष्ट्रों से प्रारम्भ हुई । इसमें एक बात ध्यान देने योग्य है की इन विकसित राष्ट्रों में से अधिकतर देशों की जनसंख्या का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा बूढ़ा हो चुका है, इसलिए इन देशों में मृत्यु दर (मॉर्टैलिटी रेट ) का औसत भी अधिक है। फिर भी इस महामारी से मरने वालों का औसत उतना नहीं है जितना कुछ वर्षों पुरानी आयी सारस नामक बीमारी से हुआ था। जहाँ कोरोना से 100 लोगों पर 3 लोग की ही मृत्यु हो रही है, वही सारस से 100 में 35 लोगों के मरने औसत था। अगर ऐसा है तो इतना हाय तौबा क्यों? इस बार इस महामारी ने अपने  उरिजिन का केंद्र बदल लिया, ये अबकी बारी ग़रीब विकासशील राष्ट्रों से प्रारम्भ होकर अमीर और उन्नत विकसित राष्ट्रों से प्रारम्भ हुई है। जहाँ इस महामारी ने पश्चिम की उन्नत स्वास्थ्य सेवाओं की धज्जियाँ उड़ा दी वही दुनिया में इन राष्ट्रों की मेडिकल सेवा को लेकर एक सन्देह भी पैदा किया है। क्यूँकि ये बीमारी उन्नत राष्ट्रों से फैली है इस कारण ये दुनिया के लिए बड़ा मुद्दा भी बन गई है।
अब देखें कि इस वैश्विक संकट की घड़ी में भारत कैसे इस महामारी के बड़े प्रकोप से बच गया। इसके लिए वर्तमान की सरकार की तत्पारता और भारत बंदी का निर्णय इस महमारी को रोकने में प्रभावकारी रही ही साथ ही साथ यहाँ की संस्कृति और परम्पराओं की भी महती भूमिका रही है। सर्वे भावन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग भवेत्॥ अर्थात्सभी का कल्याण हो, सभी निरोगी रहें, सभी के जीवन में सद् इच्छा रहे, किसी के भी जीवन में दुख न रहे’ यही भाव ही तो भारत का मूल दर्शन है, जिस पर चलकर विश्व के सभी देश परस्पर उन्नति करते हुए साथ-साथ अस्तित्त्व बनाए रख सकते हैं ।
भारत की सनातन संस्कृति जिसमें हमने व्यक्ति, समाज, प्रकृति, जीव जंतु सभी को मिलकर इस दुनिया की संकल्पना की है, जिसमे कोई किसी से भिन्न नहीं है बल्कि एक ही है । भारत में व्यक्ति का प्रकृति के साथ संवाद परस्पर है ऐसा नहीं की केवल प्रकृति से लेना बल्कि उसकी सेवा करना, और अपने साथ उसके भी मंगल की कामना करनाइसलिए अथर्ववेद में कहा गया है कि- “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। जब ये धरती मेरी माँ है तो इसकी चिंता कौन करेगा? मैं ही तो करूँगाइसलिए पेड़ों को पानी देना, शाम को उनको नहीं छूना, अकारण वृक्ष नहीं काटना, वृक्षों से प्राप्त फूल, फल, औषधि सभी को पहले ईश्वर को देना उसके उपरांत ही स्वयं के लिए प्रयोग करना, ये अपना मानस है और अपनी संस्कृति भी। इस चराचर संसार में पेड़-पौधे ही नहीं सभी जीव जन्तुओ की भी चिंता करना अपना स्वभाव रहा है, इसलिए अथर्ववेद का ऋषि कहता है “तत्र सर्वो वै जीवति गौरश्वः पुरुषः पशुः। अत्रेदं ब्रह्म क्रियते परिधिर्जीवनायकम्(अथर्व. 8.2.25) अर्थात् ईश्वर ने पृथिवी पर सभी जीवों को समान रूप से जीने का अधिकार दिया है। इसलिए अकारण किसी व्यक्ति किसी जीव अथवा वनस्पति आदि के जीवन का हरण नहीं किया जा सकता है।
इससे आगे बढ़ते हुए हमने किस प्रकार का आहार लेना इसके बारे भी हमारे धर्म ग्रंथो में विस्तार से दिया है, अथर्ववेद का “भूमि सूक्त” प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्तः सम्बन्ध को स्थापित करते हुए उसके लिए मधु, दुग्ध, अन्न, जल आदि के भक्षण का विधान करता है। एक मन्त्र में कहा गया है कि-
यस्यास्चतस्रः प्रदिशः पृथिव्याः यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।
या विभर्ति बहुधा प्राणदेजद् सा भूमिः गोष्वप्यन्ने दधातु॥ - अथर्व., 12.1
अर्थात् चार दिशाओं वाली पृथिवी में विभिन्न प्रकार की कृषि होती है और यही पृथ्वी ही नाना प्रकार से अन्न, दुग्ध आदि के माध्यम से जीवन का रक्षण करती है। हमारे भारत में भोजन ऋतुओं के अनुसार किया जाता है जिस प्रकार कौन सी औषधि किस समय वृक्ष से लेनी है ये आयुर्वेद में है उसी प्रकार से सभी ऋतुओ का भोजन भी भिन्न प्रकार है। समाज और व्यक्ति के बीच के सम्बंध को भी बड़े विस्तार से हमारे वैदिक ग्रंथो में दिया है    
                        मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
                        मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।। - यजु, 26.2
अर्थात् सभी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और मैं भी सभी को मित्र की दृष्टि से देखूँ। वही ऋग्वेद में 10 वे अध्याय के 117 श्लोक में कहाँ गया की “न स सखा यो न ददाति सख्ये ।” हम सभी एक दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें तथा समय आने पर एक-दूसरे की सहायता करें। हम सभी लोग मैत्री, करुणा, मुदिता आदि से सन्नद्ध होकर लोक-व्यवहार में प्रवृत्त हों तथा सभी लोग एक-दूसरे की रक्षा करते हुए अपने तेज, ओज की वृद्धि करें-
सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ - तैत्ति. उपनिषद्
अर्थात् सभी लोग साथ-साथ एकदूसरे की रक्षा करें, एक साथ खाना खाएं, एक-दूसरे की उन्नति में सर्वथा सहायक बनें और परस्पर किसी प्रकार का द्वेष न करें।
समानो मन्त्रः समिति समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये समानेन वो हविषा जुहोमि॥ अथर्व., 6.64.2
सभी के आचार विचार उत्तम व उन्नतिकारक होने चाहिए, एक लक्ष्य को ध्यान में रखकर सभी लोग संगठन बनाकर एक साथ कार्य करें। ईश्वर कहते हैं कि जीवों की सेवा आदि कार्यों में सभी को एक साथ समान रूप से कार्य करना चाहिए। इसी लिए वर्ण व्यवस्था को भी कर्म आधारित ही माना गया ना की जन्म पर आधारित । समाज में शिक्षा राज्य के द्वारा हो और नैतिकता और समाज कर्तव्य बौध से परिपूर्ण हो इस प्रकार की शिक्षा पद्धति हो ऐसी संकल्पना भारत की शिक्षा व्यवस्था में कही गई है। वही राज्य कैसे चले राजा को पिता के रूप एक अभिभावक माना है उसका अपना जीवन समाज के जीवन को सुख समृधिपूर्ण बनाना है । राजा प्रजा की सुरक्षा हेतु सभी प्रकार के शत्रुओं का विनाश करे-
वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंशमुदवा भरेभरे ।
अस्मभ्यमिन्द्र वरीयः सुगं कृधि प्र शत्रूणां मघवन् वृष्ण्या रुज ॥
-       अथर्ववेद, 7/50/4.
राजा इस प्रकार के वातावरण का निर्माण करे, जिसमें प्रजा को किसी प्रकार का अवाञ्छित भय न हो, वह सर्वथा निर्भीक होकर समाज में अपने व्यक्तित्त्व का विकास कर सके। सभी को एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति हो, किसी के मन में किसी के प्रति कोई द्वेष न हो। भारतीय परम्परा को समझाते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत कहते है “स्वदेशी,समर्पण,सेवा भारत की पहचान है”। वही गांधी भी कुछ ये ही बात करते स्वदेशी तत्व के आत्मसात करने से ही भारत को सशक्त राष्ट्र बनाया जा सकता है।अभी हाल के अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने भी कहा की आप हमें स्वदेश वस्तुओं का प्रयोग करना होगा , लोकल के लिए वोकल स्थानीय स्वदेशी निर्मित वस्तुओं का प्रयोग और अन्य भी उसको ख़रीदे इसका प्रचार अब समय की आवश्यकता है इस प्रकार भारतीय संस्कृति मानव तथा मानवता के संरक्षण में अपनी महती उपादेयता सुनुश्चित कर सकती है। क्योंकि इसका जनमानस हमेशा दूसरों की मदद की बात करता है। इसके समाज में केवल व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रकृति की सभी अवस्थाएँ समाहित हैं।
:- सहायक  प्राध्यापक , जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय , नई दिल्ली


Tuesday, May 5, 2020

समतामूलक समाज निर्माण में प्रतिनिधित्वरूपी आरक्षण ज़रूरी

 

      







 डॉ.प्रवेश कुमार


भारत में ग़रीबी और उससे जुड़े मुद्दे जैसे कभी अंत होने का नाम नहीं लेते उसी प्रकार आरक्षण भी ऐसा मुद्दा है जो कभी भी अपने को चर्चा से अलग कर ही नहीं पता समय-समय पर अल्लादिन के चिराग़ वाले जिन्न की तरह निकल कर बाहर आ ही जाता है, ओर फिर शुरू हो जाता है चर्चा का दौर सभी सरकारें वोट बैंक की चिंता में अपने को आरक्षण के समर्थक होने का दवा करते नहीं थकती है और अन्य को इस आरक्षण के दमनकर्ता  के रूप में दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ती है। देश की सबसे बूढ़ी पार्टी कांग्रेस बार-बार ये चिल्ला के कहती है हमने ही तो आरक्षण के प्रावधान को सविधान में डाला हम ही असल में सामाजिक न्याय के सच्चे अलंबरदार है परंतु ये बोलते ये भूल जाती है की आप ही ने बाबा साहब को उनकी मृत्यु के लगभग 40 सालों के बाद तक भी भारत रत्न नहीं दिया था । वही भारतीय जनता पार्टी के दावे कुछ यथार्थ में ज़रूर दिख जाते है चाहे बाबा साहब अम्बेडकर से जुड़े पाँच तीर्थ निर्माण का प्रश्न हो अथवा अम्बेडकर जी को दलित नेता की छवि से निकल राष्ट्र निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर बनाने का विषय हो भाजापा इन दावों पर खरी ज़रूर उतरती है लेकिन मुद्दा बाबा साहब का सम्मान और उनका सम्मान ना करना नहीं है असल मुद्दा बाबा साहब जिन मुद्दों के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे क्या आज भी उन मुद्दों को हम सुलझा पाए है , हाँ कुछ मुद्दे ज़रूर वर्तमान सरकार ने सुलझाए है जिसमें अनुसूचित जाति जनजाति उत्पीड़न क़ानून को मज़बूत करना,जम्मू- कश्मीर से धारा 370 को हटाना , पाकिस्तानी से आए हिंदुओ को भारत की नागरिकता देना। लेकिन हम देखे बाबा साहब अम्बेडकर जिस स्व-प्रतिनिधित्व की बात 1918 की साउथबोरो समिति के सामने उठा रहे थे और आज़ाद भारत के सविधान में भी जिस प्रतिनिधित्व की बात की जिसे हम आरक्षण कहते है , इस आरक्षण की आवश्यकता कियु हुई जो लोग आए दिन आरक्षण का विरोध करते नहीं थकते उनको ये जानना , समझना ज़रूरी है भारत में 1852 में सबसे पहले कुछ सरकारी सेवाओं में पदों को भारत के पढ़े लिखे लोगों के लिए आरक्षित किया गया , फिर सरकारी शिक्षण संस्थानो में आरक्षण किया गया जिसमें धारवाड में एक दलित बच्चे को प्रवेश मिला 1902 में छत्रपति साहू जी महाराज ने सरकारी नौकरियो में आरक्षण का प्रावधान किया वही 1921 के बाद दक्षिण भारत में मुख्यतः मद्रास में आरक्षण लागू किया गया , 1932 में गांधी और अम्बेडकर के बीच हुए पूना पेक्ट ने पूरे देश में आरक्षण के प्रावधान को मान्यता दी। ये आरक्षण उस वर्ग को समाज और राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जोड़ने के लिए है जिसे वर्षों उसकी जाति के कारण उत्पीड़न सहना पड़ा था ये आरक्षण तीन मुख्य आधारों पर आधारित है जिसमें जाति अस्पृश्यता , गन्दे व्यवस्या एवं शैक्षिक पिछड़ेपन को आधार माना गया। भारतीय हिंदू समाज व्यवस्था में जाति और उस आधार पर उत्पीड़न का एक लम्बा दौर रहा है, ये आरक्षण इसी वर्ग को न्याय दिलाने हेतु एक अल्पकालिक उपाय है, बाबा साहब कहते है “ जिस तलब का पानी कुता , बिल्ली , जानवर एवं विदेशों से आए लोग भी पी  सकते है वही इसी देश के लोगों को उसको छूंने ,पीने का अधिकार नहीं ये सरासर अमानवीयता है” कोई भी राष्ट्र तभी मज़बूत बन सकता है जब किसी राष्ट्र का सम्पूर्ण समाज एकात्मकता के तत्व पर खड़ा हो ,बाबा साहब ने  भारत को एक सम्पूर्ण राष्ट्र बनाने हेतु ही सविधान में इस आरक्षण की व्यवस्था को जोड़ा। हालाकि देश में इतने वर्षों में समाज के दलित कहे जाने वाले वर्ग के जीवन स्तर में काफ़ी बदलाव भी आया है लेकिन आर्थिक सम्पन्नता के बावजूद क्या सामाजिक समता उनको मिली है तो ऐसा नहीं कहा जा सकता है।
भारत की 2011 की जनसँख्या के अनुसार, भारत में अनुसूचित जाति (एससी) की जनसंख्या 16.6 प्रतिशत है वही अनुसूचित जनजाति की 8.6 फीसदी है. उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में देश के करीब आधे दलित रहते हैं. अनुसूचित जाति वर्ग की लिंगानुपात दर 975 है, जबकि अनुसूचित जनजाति में यह दर 933 है. अगर इन दोनों समुदायों में साक्षरता की बात करें तो अनुसूचित जाति में साक्षरता दर 66.1 फीसदी है, जबकि अनुसूचित जनजाति में ये दर 59 फीसदी के करीब है. वही अगर बीपीएल के आंकड़े की बात करे तो अनुसूचित जनजाति में सर्वाधिक 45.3%, वही अनुसूचित जाति में 31.5% और सरकार ने  ओबीसी वर्ग के  आंकड़े जारी नहीं किये. यह तथ्य केंद्रीय योजना राज्यमंत्री इंद्रजीत सिंह ने मार्च 2018 को लोकसभा में दिया. यह तथ्य सरकारी योजनाओं और उनके अनुपालन पर सवाल खड़ा करता है। वहीं अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन एक्शन अगेंस्ट हंगर की रिपोर्ट बताती है कि भारत में कुपोषण जितनी बड़ी समस्या है, वैसा पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अनुसूचित जनजाति (28%), अनुसूचित जाति (21%), पिछड़ी जाति (20%) और ग्रामीण समुदाय (21%) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है. पिछले वर्ष जारी वर्ल्ड हंगर इंडेक्सके अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब तथा भुखमरी से शिकार लोग भारत में हैं, तथा इनमें से अधिकाँश दलित, पिछड़े तथा जनजातीय समाज के हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के मुताबिक, जाति आधारित उत्पीड़न में दलितों पर अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी हुई है,2017 में यह आंकड़ा 43,203 का था, वही 2018 में बढ़कर 42793 मामले दर्ज हुए। इन दलित उत्पीड़न में सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश , बिहार, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान है।
अगर विश्वविद्यलय में दलित और पिछड़े समाज की हिस्सेदारी को देखा जाए तो वो बड़ीं चिंताजनक है जिस प्रकार उच्च शिक्षा में दलितों पिछड़ो के आँकड़े ठीक नहीं है उसी प्रकार से विश्वविद्यलयो में उनका प्रतिनिधित्व भी चोकने वाला है, 40 केंद्रीय विश्विद्यालयो में अगर देखे तो एक भी दलित कुलपति नहीं है और विश्वविद्यलयो के अंदर के विभिन्न प्रशासनिक पदों पर भी दलित वर्गों का नाम मात्र ही प्रतिनिधित्व है, कुल प्रोफ़ेसर के 1125 पदों में केवल 39 अनुसूचित जाति के और 8 अनुसूचित जनजाति के प्रोफ़ेसर है वही अन्य पिछड़े वर्ग से एक प्रोफ़ेसर भी नहीं हैवही एसोसियट में देखे तो कुल 2650 पदों में 130 अनुसूचित जाति और 34 अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़े समाज से कोई नहीं अन्य सामान्य वर्ग वही असिस्टेंट प्रोफ़ेसर में 7741 कुल पदों में 931 अनुसूचित जाति एवं 423 अनुसूचित जनजाति एवं 1113 अन्य पिछड़े समाज के लोग काम कर रहे अन्य सामान्य वर्ग के पास है। ये आँकड़े विश्विद्यालयो के विभागों के है कॉलेज में भी अमूमन ये ही आँकड़े है ,ऐसे समय में देश के न्यायलय कहते है की आरक्षण की समीक्षा करे आरक्षण में “क्रिमी परत बन गई है।
न्यायलयो को लेकर अभी राष्ट्रपति रामनाथ जी कोविंद ने कहा की देश के इतने न्यायलयो एवं सुप्रीमकोर्ट में गिने चुने ही दलित जज है। ये सच है की दलित वर्ग में कुछ लोगों ने तरक़्क़ी की है लेकिन क्या उनकी सामाजिक पद्दोनति भी हुई है क्या उनका विवाह अपनी जाति के अलवे कही और हो पता है , क्या आज भी गाँव में उनके साथ समान व्यवहार होता है। जहाँ तक क्रिमी परत का प्रश्न है उन्नत आरक्षित वर्ग को अपने ही लोगों के लिए अपना आरक्षण छोड़ना ही चाहिए मैं स्वयं इसके पक्ष में हु लेकिन इसे वो समाज ही तय करे मैं इसके भी पक्ष में हु, आरक्षित वर्ग ख़ुद तय करे उसे आरक्षण छोड़ना है अथवा नहीं। 





Wednesday, April 17, 2019

सामाजिक न्याय, अंत्त्योदय के विचारों पर बढ़ती मोदी सरकार - डॉ प्रवेश कुमार


             
                                                            
सामाजिक न्याय और अंत्त्योदय का विचार भारत की मूल दर्शन का विचार है, जो वर्षों से भारत के चिंतन का केंद्र रहा है । जब - जब भारत के मूल चिंतन को भारत के समाज ने खंडित होते देखा तब-तब समाज के भीतर से ही एक विद्रोही स्वर  निकल कर सामने आए चाहे वो महात्मा बुद्ध, कबीर, रविदास हो जिन्होंने समाज में व्याप्त असमानता को दूर कर प्रेम नगर और बेगमपुरा जैसे नगरों को बसाने की बात की। वही महादेव गोविंद रानाडे और ज्योतिबा फुले आते है जो समाज में व्याप्त जातीय सर्वोच्चता के ख़िलाफ़ एक मुहिम चलाते  हैं और साथ ही एक विकल्प स्वरूप “सत्यर्थी धर्म” को समाज के सामने लेकर भी आते हैं । वही महात्मा गांधी और डॉ भीम राव राम जी अम्बेडकर जी के द्वारा भी समाज के बदलाव का प्रयास किया जाता है । महाराष्ट्र में ही 1925 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार को द्वारा की जाती है। ये संगठन उस समय की बड़ी घटना इस अर्थ में थी जहाँ एक ओर गांधी और काँग्रेस के नेता देश की आज़ादी और सामाजिक  सुधार एक साथ नहीं चल सकने के विचार को मानते थे, वही अम्बेडकर जी सामाजिक  सुधार पहले हो जिससे देश के करोड़ों दलित अछूत जन भी देश के स्वतंत्रता के बाद अपने को सभी के समान मान सके  के विचार को प्रमुखता से रखते थे ।
            संघ ने भारत के विचार को माना, ये विचार समता और बंधुत्व के विचार पर टिका था । जिसमें स्वतंत्रता के साथ सामाजिक सुधार साथ ही चले और भारत के प्रत्येक व्यक्ति के मानस में ये विचार हो की मुझे मेरे देश के लिए खड़ा होना और लड़ना है, ये देश मेरा है मैं इस देश के लिए हूँ और मेरा जन्म ही इस पुण्य भूमि के लिए हुआ है। इसलिए समाज में व्याप्त कितनी भी विभिन्नता क्यों ना हो पर हम सब एक है, सभी सहोदर हैं, एक ही परिवार हैं, कोई बड़ा और छोटा नहीं है, हम सभी बंधुभाव से साथ- साथ चलने वाले हैं । इसी बंधुभाव के विचार ने आज संघ को दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बना दिया है । इसी विचार से निकली जनसंघ जिसके संस्थापक देश के स्वतंत्रता संग्रामी और प्रथम उद्योग मंत्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी  थे। पिताम्बर दास, अटल बिहारी वाजपाई, दीनदयाल उपाध्याय, नाना जी देशमुख, रामस्वरूप विद्यार्थी, सूरजभान, कलका दास जी आदि इससे बड़े नेता और सांसद  बने ।
            जनसंघ क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों  को अपना प्रेरणाबिंदु मानता था, संघ का विचार इस देश का मूल देशज विचार ही था, इस विचार में  व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अखंड विश्व की कल्पना एक कुटुम्ब के रूप में की गई है, सभी के कल्याण का विचार जिसमें निहित है  । जहाँ बुद्ध और बाबा साहब अम्बेडकर ने समतामूलक समाज की स्थपाना का विचार दिया, तो वहीं महात्मा गांधी के ग्रामसुराज की संकल्पना भी निहित थी । ये ही जनसंघ 1980 में मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के रूप में हमारे सामने आती है। 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना मुंबई के अधिवेशन के निमित्त संकल्पित “समता नगर” में मुंबई के बड़े दलित नेता और पार्टी के मुंबई सचिव “दत्ता जी राव शिंदे” के द्वारा भूमि-पूजन से किया गया। जिस पार्टी की स्थपाना समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के कर-कमलों द्वारा भूमि-पूजन से प्रारम्भ हो उस दल का क्या उदेशय हो सकता है, ये सहज ही ज्ञात हो जाता है। इसीलिए राम स्वरूप विद्यार्थी, कलका दास, सूरज भान, सत्यनारायण जटिया, स्वरूप चाँद राजन जी जैसे दलित नेता पार्टी के बनते ही राष्ट्रीय फलक पर उभर कर आते हैं।
            1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी ने अपनी स्थापना से ही ये तय कर लिया की समाज में व्याप्त असमानता और वैमनस्यता के भाव को मिटा कर समाज में सभी के लिए समान अवसर प्रदान करना है  ताकि सब साथ - साथ चल सके । इसीलिए अगर हम देखे की बाबा साहब अम्बेडकर का तैलीय चित्र संसद के मुख्य कक्ष में लगे तथा उन्हें भारत रत्न मिले, इसके लिए मुखर आवाज़ को बुलंद करने का कार्य किसी और ने नहीं बल्कि सन 1978 में अटल बिहारी वाजपाई ने की । वही 1990 में बाबा साहब का आदमकद मूर्ति, संसद परिसर में लगे इस माँग का समर्थन भी भाजपा के सभी नेताओ ने एक स्वर में किया । इसी प्रकार भाजपा की सरकार ने ही दलितों को मिलने वाले आर्थिक सहायता छोटे काम धन्धे, कारोबार हेतु खोलने में पहले से चल रहे उस नियम को हटाने का काम किया जिसमें वो बकरी और सुआर ही पाल सकता था सरकार ने दलितों को पैसा दिया और कहा आप स्वेच्छा के अनुसार कोई भी काम करे।
            भाजपा की पहली अटल बिहारी वाजपाई सरकार में समाज के आरक्षित वर्गों के लिए बैगलोग नौकरियो को पहली बार भरा गया । वही सूरजपाल, कल्याण सिंह जैसे कई राजपाल और मुख्यमंत्रियो को आरक्षित वर्गों से लेकर बनाया गया । इसी समय सरकार ने सरकारी नौकरियो में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो  इस दृष्टि से 200 पोईंट रोस्टर को लगाने का काम किया। पदोन्नती में आरक्षण पर अधिनयम लाकर उसे लागू करने का काम भी भाजपा की सरकार ने ही किया, परंतु भाजपा सरकार के जाने के बाद उसे अगली सरकारें ठीक से लागू  नहीं कर पाई । समाज के हर व्यक्ति की चिंता करने की मानसिकता के कारण आज की वर्तमान सरकार ने भी समाज में सभी का विकास हो इस दृष्टि से बहुत से जनकल्याणकारी  कार्यक्रमो  का संचालन किया।
            आज की मोदी सरकार ने अनुसूचित जाति जनजाति के लिए चलने वाली विभिन्न योजनाओं के लिए अब तक की सबसे ज़्यादा राशि को आवंटित किया, जिसकी राशि 1,2600 करोड़ रुपए हैं। वही सरकार से मुद्रा बैंक योजना के द्वारा 8 करोड़ से ज़्यादा ऋण (लोन) राशि केवल अनुसूचित जाति, जनजाति के लोगों ने लिया है। इसको लेकर इस वर्ग के लोगों ने विभिन्न प्रकार की औद्योगिक इकाई का संचालन किया । इस योजना में बाबा साहब अम्बेडकर के उस सपने को भी साकार किया जो उन्होंने 1918 साउथ बोरो कमेटी के समक्ष प्रस्तुत अपने प्रतिवेदन में की थी । बाबा साहब चाहते थे की दलित उद्यमियों की एक बड़ी फ़ौज खड़ी हो । इस मंशा को सरकार ने मुद्रा और स्टार्ट-अप इंडिया के माध्यम से पूरा करने का काम किया है ।  इसमें सबसे बड़ी बात हैं 50000 की राशि से लेकर 1 करोड़ तक की राशि अनुसूचित जाति जनजाति ने ली हैं ।
            इसी प्रकार से प्रधानमंत्री के द्वारा “ स्वच्छ भारत अभियान” के द्वारा ग्रामीण भारत में एक सम्मान और अपमान की एक परिचर्चा प्रारंभ हुई हैं, आज घर में शौचालय होना सम्मान का प्रतीक बनता जा रहा, आएदिन शादी और शौचालय को लेकर विभिन्न रिपोर्ट छपती रहती है स्वच्छ भारत अभियान क्या मात्र घरों में इज़्ज़तघर (शोचलय) बनाने मात्र से जुड़ा है ? बस इतनी-सी बात है, ऐसा नहीं बल्कि ये अभियान स्वस्थ पर्यावरण के साथ जुड़ा है, ग्रामीण भारत में बीमारी का बड़ा कारण शौच के लिए बाहर जाना है और मक्खियों के द्वारा होने वाली ज़्यादातर  बीमारियों में काफ़ी कमी आइ है। अभी तक सरकार ने 9 करोड़ शौचालयों का निर्माण कर दिया हैं, जो सफलता के काफ़ी नज़दीक है ।
            उज्जवला योजना जिसमें घर की महिलाओ को मुफ़्त गैस देने की योजना का प्रावधान किया गया, क्या इसका लाभ केवल सामान्य वर्गों ने लिया है? ऐसा बिलकुल नहीं है।  इसमें अधिकार लाभार्थी दलित, पिछड़े समाज के लोग ही हैं, इस योजना का लाभ देश के 7 करोड़ लोगों ने लिया है। इसी प्रकार 50 करोड़ लोगों ने “आयुषमान भारत” योजना के तहत अपना निशूल्क़ इलाज कराया है, ये योजना दुनिया की सबसे बड़ी योजना है, जिसमें प्रत्येक परिवार को 5 लाख तक का स्वास्थ्य बीमा दिया गया है।
प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत लगभग 2 करोड़ ग़रीबों को पक्के घर बना कर दे दिए गए हैं। 33 करोड़ जनधन बैंक खाते खोल कर सरकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार को रोकने का काम किया है “लाभ सीधे लाभार्थी के खाते में” क्या इसमें दलित, वांचित, अनुसूचित जाति जनजाति नहीं है? गाँवों में बैंक खाते ना होने के कारण नरेगा में कितना भ्रष्टाचार होता था क्या किसी से छुपा है।
            आज लगभग सभी गाँव बिजली से युक्त हो गए हैं,  जो वर्षों से अंधेरे में थे । बाबा साहब अम्बेडकर को लेकर उनसे देश प्रेरणा ले सके इस निमित पाँचतीर्थ बनाने का काम किया, जिसमें बाबा साहब से जुड़े सभी स्थानो को सरकार के द्वारा निर्मित करने का काम किया, वही दिल्ली में डॉ अम्बेडकर अंतर्रष्ट्रीय केंद्र भी बनाया गया,  जो दिल्ली में बाबा साहब को जानने और समझने का मुख्य केंद्र बनेगा ऐसा सरकार का उदेश्य  है। बाबा साहब अम्बेडकर का सविधान निर्माण में क्या योगदान रहा? इसको जानने के लिए 26 नवम्बर को सविधान दिवस को सरकार ने मनाने का काम किया । भीम ऐप के माध्यम से आर्थिकलेनदेन को प्रारम्भ करके बाबा साहब अम्बेडकर को सभी स्मरण कर सकें ऐसा प्रयास किया ।
         वैसे तो बाबा साहब को दलितों का ही नेता माना गया था वर्तमान मोदी सरकार ने बाबा साहब को राष्ट्रनिर्माता  बाबा साहब अम्बेडकर बनाने का कार्य किया ।  वही वर्षों पिछड़े वर्ग की माँग थी की पिछड़े आयोग को अनुसूचित जाति, जनजाति की भाँति ही शक्ति दी जाए, वर्तमान की मोदी सरकार ने इस कार्य को भी किया और आज पिछड़ा आयोग अधिक शक्तिशाली हुआ है जो सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका को निभाएगा। वही हाल ही में देश के न्यायलयो  के द्वारा कुछ मामलों में समाज के अनुसूचित वर्गों के लिए अन्यायकारी निर्णयो को दिया गाय उसको वापस करने और उस पर अध्यदेश ला कर क़ानून बनाने का कार्य सरकार ने किया। सरकार “अनुसूचित जाति उत्पीड़न क़ानून” का अधिक मज़बूत और सशक्त किया है । वही विश्वविद्यालयों में 200 बिंदु रोस्टर को कोर्ट के द्वारा रद्द करने की स्थिति में सरकार ने अध्यदेश के माध्यम से उसे पुनः लागू करने का काम किया ये भी याद करने की बात है। 200 बिंदु रोस्टर अटल बिहारी वाजपाई जी की सरकार ही लेकर आइ थी, सरकार ने माना की इस आरक्षण नीति से सभी वर्गों को लाभ पहुँचता है। इसीलिए जिस मंत्र को लेकर संघ चला उस विचार को फलीभूत करने का कार्य जनसंघ से लेकर आज की वर्तमान भाजपा और सरकार कर रही है। सबका साथ, सबका विकास ये मंत्र लेकर समाज में अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को विकास की योजना के केंद्र में रखने वाली नीति पर सरकार ने कार्य किया है। ये ही विचार भारत का विचार है, जिसमें सभी को साथ लेकर चलना और उनका विकास करना शामिल है।

प्राध्यापक, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय  


परिवरवाद की भेंट चढ़ता बहुजन-दलित आंदोलन - डॉ. प्रवेश कुमार

  बाबा साहब अम्बेडकर के बाद देश भर में और विशेषकर हिंदिपट्टी की प्रांतो में तेज़ी से दलित बहुजन आंदोलन चला , बनारस उत्तरप्रद...